
नई दिल्ली| इससे पहले कि हमें एहसास हो, अगला लोकसभा चुनाव हमारे सिर पर होगा, जिसको लेकर अब तक उत्साह और अपेक्षाओं की हिलोरें उठनी चाहिए थीं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. भाजपा सुकून से बैठी है, जिसके वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई दिखाई नहीं देता. सवाल यह नहीं है कि केंद्र में तीसरी बार बीजेपी सरकार बनेगी या नहीं, बल्कि विपक्ष का गेम प्लान क्या है? अगर है भी तो. विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर कांग्रेस को बीजेपी-एनडीए के गठबंधन को मात देने के लिए विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए, लेकिन विपक्ष असमान ताकतों की एक सेना है, जिसके पास एक कमांडर इन चीफ भी नहीं है, जो युद्ध के मैदान में अपनी सेना का नेतृत्व कर सके. पूर्णकालिक अध्यक्ष के बिना कांग्रेस नेतृत्वहीन है. सोनिया गांधी यह जाहिर करती हैं कि वह पार्टी की अनिच्छुक अंतरिम अध्यक्ष हैं. उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी राहुल गांधी अस्थिर और जिद्दी दिखाई पड़ते हैं, जिनकी कोशिश कुछ हासिल किए बिना अपनी स्थिति मजबूत करने की है. पार्टी के ही 23 असंतुष्टों नेताओं का समूह मौके की तलाश में है. दूसरी ओर मुट्ठी भर राज्यों में जहां कांग्रेस सत्ता में है, वहां आंतरिक कलह हावी है, जिसे हाईकमान भी हवा देता रहता है. स्पष्ट तौर पर कोई नया क्षेत्र दिखाई नहीं देता, जहां कांग्रेस अपनी घेराबंदी कर सके.
यूपी-उत्तराखंड के लिए AAP के ऐलान
कुछ लोग कहेंगे कि यह केजरीवाल का दुस्साहस है, जो एक केंद्रशासित प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उनके अधिकार सीमित हैं. बावजूद इन दलीलों के अरविंद केजरीवाल मैदान में हैं, पंजाब में आम आदमी पार्टी एक बार फिर पूरी ताकत के साथ चुनावी मैदान में उतर रही है. 2017 के चुनावों में खराब प्रदर्शन के बावजूद पार्टी एक बार फिर गोवा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में लड़ने की तैयारी में है. इन सभी राज्यों में 2022 में वोटिंग होगी. केजरीवाल ने गुजरात में भी पैर जमा लिया है, ये एक और राज्य है, जहां आने वाले दिनों में चुनाव होंगे. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के लिए अपने एजेंडे का ऐलान करके अरविंद केजरीवाल ने बता दिया है कि वे दोनों राज्यों की सियासत को लेकर गंभीर हैं. पार्टी ने दोनों राज्यों के लिए लोकलुभावन वादे किए हैं. रोजगार की कमी वाले पहाड़ी राज्य के लिए केजरीवाल ने ‘हर घर रोजगार’ कार्यक्रम, बेरोजगार युवाओं के लिए 5,000 रुपये मासिक भत्ता, छह महीने की अवधि में 10,000 सरकारी नौकरियों का सृजन, उत्तराखंड के निवासियों के लिए सरकारी नौकरियों 80 फीसदी आरक्षण का वादे के साथ प्रवासी मंत्रालय के गठन का ऐलान किया है.
पूर्वाेत्तर पर ममता की निगाह
केजरीवाल ने हिंदुत्व में आस्था जताई है. ये सॉफ्ट तौर पर दिखता है, उन्होंने उत्तराखंड को आध्यात्म की वैश्विक राजधानी बनाने का वादा भी किया है. लोकलुभावन वादा? कम से कम ये वोटरों तक पहुंचने का एक तरीका तो है. उत्तर प्रदेश के लिए आम आदमी पार्टी ने किसानों के लिए मुफ्त बिजली के साथ अन्य के लिए 300 यूनिट मुफ्त बिजली और बकाये बिल को अलग करने का ऐलान किया है. वहीं ममता बनर्जी ने पूर्वोत्तर पर निगाह गड़ाई है. त्रिपुरा पहले लेफ्ट का गढ़ था, लेकिन अब टीएमसी ने राज्य की सियासत में गर्मी बढ़ा दी है. बीजेपी ने इसे नोट किया है, तो लेफ्ट अपना वर्चस्व फिर से स्थापित करने के लिए बेताब है. टीएमसी के जुझारू होने के बाद माकपा हरकत में आई और भाजपा के साथ सड़कों पर टकराव दिखने लगा. दूसरी ओर राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं. और ऐसा लगता है कि पार्टी अपने ही एक शासित राज्य को खो देगी.
विरासत बनाम सियासत
भाजपा के अथक अभियान का धन्यवाद कि ‘वंशवाद’ अब एक बुरा शब्द है. राहुल एक विरासती, पांचवीं पीढ़ी के नेहरू-गांधी हैं. वंशावली को अब कोई विशेषता नहीं है, अब लोग काम, प्रतिष्ठान और कड़ी मेहनत की बात करते हैं. इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि ममता और केजरीवाल एक बदले हुए माहौल के बाय-प्रोडक्ट हैं, जबकि राहुल गांधी उत्तराधिकारी हैं. राहुल गांधी को कभी कांग्रेस में जगह के लिए लड़ना नहीं पड़ा, लेकिन कौन जानता है कि भविष्य क्या है? वहीं, ममता बनर्जी ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया, सीताराम केसरी के नेतृत्व को खारिज कर दिया, टीएमसी के तौर पर अपनी पार्टी बनाई. लेफ्ट से कई बार हारने के बावजूद उस पर कायम रहीं, और अंत में सफलता का स्वाद चखा. एक राजनेता के रूप में वह जानती हैं कि उन्हें अकेले ही उस राजनीतिक पूंजी को बचाना और बनाना है, जो टीएमसी ने जमा की है. लिहाजा बीजेपी की ओर से एक बड़े खतरे का आभास होने और 2019 के लोकसभा चुनावों में लगा झटका ममता बनर्जी को अपना किला बचाने के लिए उकसाने को पर्याप्त था. ममता ने साबित कर दिया कि जरूरत पड़ने पर वह उठ सकती हैं और भाजपा का पुरजोर मुकाबला कर सकती हैं.
बीजेपी को उसी के दांव से मात
ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल बिना किसी हिचक के बीजेपी की नकल करते हैं, क्योंकि उन्हें इलहाम है कि कांग्रेस बीता हुआ कल है और बीजेपी भविष्य है. दोनों नेताओं ने बीजेपी के दांवपेंच को बखूबी अपनाया है, लेकिन राहुल गांधी ऐसा नहीं कर पाए हैं. केजरीवाल ने कभी भी सॉफ्ट हिंदुत्व की अपनी रणनीति को लेकर आंखें नहीं चुराई हैं, भले ही अगले चुनाव में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़े. ममता बनर्जी ने बीजेपी के साथ वही किया है, जो बीजेपी ने विधानसभा चुनाव से पहले ममता के साथ किया. अगर बीजेपी ने टीएमसी से सुवेंदु अधिकारी को तोड़ा तो ममता बनर्जी ने इसकी भरपाई बीजेपी के चार विधायकों के साथ सांसद बाबुल सुप्रियो को तोड़कर किया. राहुल गांधी ने चुनावों के दौरान ‘जनेऊ’ धारण किया, मंदिर में जाकर शीश नवाया, लेकिन उन्हें इसकी कीमत ज्यादा भारी पड़ी.