ऐसे अपराध जिनमें अदालत सिर्फ़ नाममात्र का जुर्माना लगाकर छोड़ देती है

भारत में चलने वाले कानूनों में तरह तरह के अपराध हैं। छोटे बड़े सभी तरह के अपराध हैं। हर अपराध में सज़ा भी उस अपराध की गंभीरता को देखते हुए निर्धारित की गई है। फांसी की सज़ा से लेकर सौ रुपये के जुर्माना तक की सज़ा है। कुछ छोटे अपराध ऐसे हैं जहां अदालत के पास एक माह, छः माह तक के कारावास की सज़ा देने की शक्ति है। लेकिन अदालत उदारता के साथ ऐसे छोटे अपराधों में कारावास की सज़ा नहीं देकर नाममात्र का जुर्माना लगा देती है। क्योंकि भारत की जेलों में इतने अपराधी हो चुके हैं कि अपराधियों को रखने एवं उनकी देखरेख की व्यवस्था मुश्किल हो जाती है। अदालत गंभीर अपराधों में ही जेल में रखने पर ध्यान आकर्षित करती है।

इस आलेख में उन अपराधों के बारे में बताया जा रहा है जिनमें अदालत आरोपी द्वारा जुर्म कबूल करने पर जुर्माना कर देती है। हालांकि ऐसा तब ही होता है जब अभियुक्त जुर्म कबूल कर लेता है इससे अदालत का समय बच जाता है और इतने समय में गंभीर प्रकरणों को सुना जा सकता है।

जुआ और सट्टे का अपराध

भारत में जुआ और किसी भी तरह का सट्टा खेलना या खिलवाना दोनों ही पूरी तरह प्रतिबंधित है। इसे अपराध घोषित कर कारावास की सज़ा का उपबंध किया गया है। भारत में जुएं को प्रतिबंधित करके अपराध बनाने वाला कानून सार्वजनिक जुआ अधिनियम, 1867 है। इस अधिनियम के अंतर्गत जुआ खेलना और खिलवाना दोनों ही कारावास से दंडनीय अपराध है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट कर चुकी है कि बगैर मजिस्ट्रेट की इजाज़त के पुलिस द्वारा छापा नहीं मारा जा सकता क्योंकि इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध गैर संज्ञेय अपराध है जिसमें पुलिस को सीआरपीसी की धारा 155 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से इजाज़त लेनी होती है। इस तरह सट्टे के लिए सट्टा अधिनियम भी है जो सट्टे को पूरी तरह प्रतिबंधित कर अपराध बनाता है। इन दोनों ही अपराधों में यदि अदालत चाहे तो प्रकरण को समरी ट्रायल के रूप में सुनकर अभियुक्त को कारावास से भी दंडित कर सकती है लेकिन आमतौर पर अदालत इन अपराधों में अभियुक्त के अपराध स्वीकार कर लेने पर सौ या दो सौ रुपए का जुर्माना कर देती है और जुएं में पकड़ाए रुपए सरकार द्वारा राजसात कर लिए जातें हैं।

सार्वजनिक रूप से शराब पीने का अपराध

शराब और भांग से संबंधित अपराध राज्य सरकार के अंडर में आतें हैं। सभी राज्यों के शराब को लेकर अलग अलग अधिनियम हैं लेकिन अब लगभग सभी राज्यों में सार्वजनिक रूप से शराब पीने को प्रतिबंधित किया जा चुका है। ऐसे अपराधों में यदि पुलिस प्रकरण बनाती है तो अदालत जुर्माना कर छोड़ सकती है। इन अपराधों में ट्रायल फेस नहीं करना पड़ता है क्योंकि अपराध स्वीकार कर लेने पर जुर्माना कर दिया जाता है।
इस ही तरह कभी कभी अदालत उदार दृष्टिकोण रखते हुए एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत आने वाले पदार्थों के सेवन करने वाले व्यक्ति पर भी जुर्माना लगाकर छोड़ देती है हालांकि यह थोड़ा गंभीर मामला है इसलिए अदालत इस अपराध में अधिकांश जुर्माना लगाकर नहीं छोड़ती है। कम मात्रा में शराब ज़ब्त होने पर भी अदालत अपराध स्वीकार करने पर मामला खत्म कर अभियुक्त को जुर्माना लगा देती है।

लापरवाही से गाड़ी चलाने पर

लापरवाही से कोई भी मोटरयान चलाने वाले पर या फिर कोई अन्य सवारी चलाने वाले पर आईपीसी की धारा 279 लागू होती है। इस धारा के लागू होने के लिए किसी व्यक्ति को चोट पहुंचनी ही ज़रूरी नहीं है। केवल लापरवाही से सवारी चलाने पर ही इस धारा में अपराध बन जाता है। इस ही के साथ यदि ऐसे वाहन चलाने से किसी व्यक्ति को साधारण चोट लगी है तब भारतीय दंड संहिता की धारा 337 लागू होती है। इन दोनों ही अपराधों में अदालत अभियुक्त को जुर्माना लगाकर छोड़ सकती है। हालांकि यदि पीड़ित को गंभीर चोट लगी है जैसे फ्रेक्चर इत्यादि है तब धारा 338 प्रयोज्य हो जाती है जब अदालत जुर्माने पर नहीं छोड़ती है ऐसे में अगर अभियुक्त अपराध स्वीकार कर ले तो उसे कारावास का दंड दिया जा सकता है। इस ही प्रकार आईपीसी के अधीन अन्य छोटे अपराध भी हैं जिनमें गाली गलौज, झूमाझटकी इत्यादि हैं। इन अपराधों में भी अदालत जुर्माने पर अभियुक्त को छोड़ सकती है। कुलमिलाकर ऐसे अपराध जो अधिक गंभीर नहीं हैं और जिनमें कारावास की सज़ा एक दो महीने या छः महीने तक ही है वहां अदालत अभियुक्त के अपराध स्वीकार करने पर जुर्माना लगाकर छोड़ सकती है।

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