चेदि नरेश वसु की मैत्री देवराज इंद्र से थी। वसु इंद्र द्वारा दिए स्फटिक निर्मित विमान से आकाश में भ्रमण करता था। सदा ऊपर ही ऊपर चलने के कारण वह ‘उपरिचर वसु’ के नाम से विख्यात हुआ। उपरिचर की राजधानी के निकट शुक्तिमती नदी बहती थी। एक दिन कोलाहल नामक पर्वत ने नदी का मार्ग रोक लिया। वसु ने पैर के प्रहार से पर्वत में दरार डाल दी और नदी का मार्ग खोल दिया। पर्वत और नदी के योग से जुड़वां संतानें पैदा हुईं, जिन्हें नदी ने राजा वसु को भेंट कर दिया। वसु ने पुत्र को अपना सेनापति बनाया और गिरिका नामक कन्या से विवाह कर लिया। एक दिन राजा वसु आखेट पर गया था। वहां उसे सहसा गिरिका की याद आई और वह कामासक्त हो गया। फिर वसु का वीर्य स्खलित हो गया। वीर्य और गिरिका का ऋतुकाल व्यर्थ न जाए, यह सोचकर राजा वसु ने वीर्य को एक पत्ते पर उठाया और उसे पुत्रोत्पत्ति मंत्र से अभिमंत्रित करके एक बाज को सौंपते हुए कहा कि वह वीर्य को उसकी पत्नी गिरिका तक पहुंचा दे।
मार्ग में एक अन्य बाज ने वीर्य ले जा रहे बाज पर मांस की संभावना से आक्रमण कर दिया। इसी छीना-झपटी में वसु का वीर्य नदी में गिर गया। नदी में अद्रिका नाम की एक अप्सरा ब्रह्मा के शाप से मछली बनकर अपना समय काट रही थी। वसु का वीर्य अद्रिका ने ग्रहण कर लिया और वह गर्भवती हो गई। संयोग से दसवें माह में गर्भवती अद्रिका एक मछुआरे के जाल में फंस गई। मछुआरे ने जैसे ही मछली का पेट चीरा, तो भीतर से दो बच्चे-एक कन्या और एक बालक निकला। इसी के साथ अप्सरा अद्रिका, ब्रह्मा के शाप से मुक्त हो गई। फिर वह मछुआरा, मछली से उत्पन्न दोनों बच्चों को राजा वसु के पास लेकर गया। राजा उपरिचर ने बालक को अपने पास रख लिया, जो बाद में मत्स्य नाम का धर्मात्मा राजा हुआ। और वसु ने कन्या, मछुआरे को ही सौंप दी। वह कन्या रूप, सत्य एवं अन्य समस्त गुणों से युक्त थी, इसलिए उसका नाम ‘सत्यवती’ रखा गया। चूंकि सत्यवती का जन्म मछली से हुआ था, तो उसके शरीर से मछली की गंध आती थी। इसलिए उसका एक नाम मत्स्यगंधा पड़ गया। वह पिता की मदद करने के लिए यमुना में नाव चलाती थी।
एक दिन महर्षि पराशर की दृष्टि सत्यवती पर पड़ी। उसका सौंदर्य देख उन्होंने उसके साथ समागम की इच्छा प्रकट की। सत्यवती ने कहा, ‘नदी के दोनों तटों पर बहुत-से ऋषि हमें देख रहे हैं। ऐसी दशा में समागम कैसे हो सकता है?’
यह सुनकर पराशर ने योगबल से चारों ओर कुहरे की सृष्टि कर दी, जिससे पूरा प्रदेश अन्य लोगों की दृष्टि से ओझल हो गया। तब सत्यवती ने कहा, ‘प्रभु! मैं अपने पिता के अधीन रहने वाली कुंवारी कन्या हूं। आपके साथ समागम करने से मेरा कौमार्य भंग हो जाएगा और फिर मैं अपने घर नहीं जा सकूंगी। इस कलंक के साथ मेरे लिए जीवित रहना भी कठिन हो जाएगा। इसलिए आप इन बातों पर विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिए।’ सत्यवती की बात सुनकर पराशर मुस्कराते हुए बोले, ‘मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि मेरे साथ समागम करने के उपरांत भी तुम कन्या ही रहोगी। मेरे इस कार्य को सिद्ध करने के बदले तुम जो चाहो, मुझसे वर मांग सकती हो।’
महर्षि पराशर के ऐसा कहने पर सत्यवती ने उनसे वरदान मांगा कि उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध दूर हो जाए और उसके स्थान पर सदा उत्तम सुगंध आए। पराशर ने सत्यवती को मनवांछित वर दे दिया। पाराशर से मिले वरदान के फलस्वरूप सत्यवती के तन से सुगंध आने लगी, जो एक योजन दूर तक महसूस होती थी। इस तरह मत्स्यगंधा सत्यवती, पराशर के वरदान से ‘योजनगंधा’ कहलाने लगी। तदनंतर, सत्यवती ने पराशर के साथ समागम किया और एक पुत्र को जन्म दिया। कृष्ण वर्ण के उस बालक का जन्म द्वीप पर हुआ था, इसलिए वह कृष्ण द्वैपायन कहलाया, जिसे संसार महर्षि वेदव्यास के नाम से जानता है।