अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम पर 2018 में दिए आदेश पर केंद्र की पुनर्विचार याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति दे दी. तीन जजों की बेंच ने पिछले साल दिये गए दो जजों की बेंच के फैसले को रद्द किया. पिछले साल दिए फैसले में कोर्ट ने माना था कि एससी/एसटी एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी की व्यवस्था के चलते कई बार बेकसूर लोगों को जेल जाना पड़ता है. कोर्ट ने तुंरत गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी. इसके खिलाफ सरकार ने पुनर्विचार अर्जी दायर की थी.
जस्टिस अरुण मिश्रा, एमआर शाह और बीआर गवई की बेंच ने फैसला सुनाया. इसी पीठ ने 18 सितम्बर को इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई पूरी की थी. पीठ ने कानून के प्रावधानों के अनुरूप समानता लाने का जिक्र करते हुए कहा कि देश में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों के साथ भेदभाव और अस्पृश्यता बरती जा रही है. गरीबों और पिछड़ों को उनका हक मिलना चाहिए.
18 सितंबर को बेंच ने पिछले साल 20 मार्च को सुनाए गए दो जजों की बेंच के फैसले की आलोचना की थी. कोर्ट ने कहा था कि दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के 70 सालों बाद भी समाज में जातिगत भेदभाव जारी है.
पिछली सुनवाई पर सफाईकर्मियों को सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं करवाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख सख्त था. शीर्ष अदालत ने कहा था कि दुनिया में और कहीं भी लोगों को मरने के लिए गैस चैंबर में नहीं भेजा जाता है.
पीठ ने कहा था कि यह अत्यंत असभ्य और अमानवीय स्थिति है कि हाथ से काम करने वाले सफाईकर्मियों की रोज मौत हो रही है और उनको कोई सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं करवाया जा रहा है और प्राधिकरणों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है.
पीठ ने केंद्र से पूछा था, “हाथ से सफाई के लिए आपने क्या किया है? किसी दूसरे देश में बिना सुरक्षा उपकरण के लोग मैनहोल में प्रवेश नहीं करते हैं. इसके लिए आपने क्या किया है?” उन्होंने यह भी बताया कि इस देश में अस्पृश्यता का व्यवहार आज भी हो रहा है, क्योंकि इस प्रकार सफाई के काम में जुटे लोगों से कोई हाथ नहीं मिलाता है.
अदालत ने पूछा था, “कानून में अश्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन यह हर व्यक्ति के लिए एक सवाल है कि क्या आप हाथ से सफाई करने वाले सफाईकर्मियों से हाथ मिलाते हैं.” अदालत ने कहा, “सभी मानव समान हैं और जब वे समान हैं तो आपको उनको समान अवसर देना चाहिए.”