पाकिस्तानी वित्तमंत्री हम्माद अजहर के नेतृत्व वाली उच्च अधिकार प्राप्त आर्थिक समन्वय समिति ने गत 31 मार्च को भारत से कपास एवं चीनी के आयात को हरी झंडी दिखाई। वाणिज्य मंत्रालय की सिफारिश पर ही समिति ने यह अनुमति प्रदान की। इसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की सहमति भी थी। फिलहाल पाकिस्तान कपास उत्पादन में भारी कमी से जूझ रहा है। वहां कपड़ा उद्योग पर इसकी तगड़ी मार पड़ रही है। इस कारण उसे किफायती दर पर तत्काल कपास चाहिए। ऐसी आपूर्ति केवल भारत से ही संभव है। पाकिस्तान में चीनी की भी भारी किल्लत बनी हुई है। मध्य अप्रैल से रमजान का महीना शुरू होने वाला है। इस दौरान चीनी की खपत खासी बढ़ जाती है। इससे कीमतें बढ़ेंगी जिससे आम आदमी का बजट बिगड़ेगा। ऐसे में समिति का फैसला तार्किक आधार पर एकदम दुरुस्त था। यह दोनों देशों के बीच बेहतर हो रही उन भावनाओं के अनुरूप ही था, जिसमें 24 फरवरी को सीमा पर संघर्षविराम और तनाव घटाने को लेकर सहमति बनी थी।
जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव के विरोध में पाक ने व्यापारिक रिश्तों को डाला ठंडे बस्ते में
यहां तक सब ठीक था, परंतु एक अप्रैल को पाकिस्तानी कैबिनेट ने उक्त समिति का फैसला पलट दिया। उसने एक उप-समिति गठित करके तय किया कि यही भारत के साथ व्यापार संबंधी मामलों को देखेगी। पाकिस्तानी कैबिनेट ने यह भी दोहराया कि भारत द्वारा अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में किए गए संवैधानिक बदलाव के विरोध में पाकिस्तान उसके साथ व्यापारिक रिश्तों को ठंडे बस्ते में ही रखेगा। हालांकि बाद में उसने भारत से जीवन रक्षक दवाओं और अन्य औषधियों के आयात की ही अनुमति दी। वास्तव में आर्थिक समन्वय समिति के फैसले को पलटकर इमरान खान अपने मंत्रियों के दबाव के आगे झुक गए। इनमें विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी, मानव संसाधन विकास मंत्री शीरीन मजारी, रेल मंत्री शेख राशिद और नियोजन मंत्री असद उमर जैसे नाम शामिल हैं। भारत के साथ तनाव घटाने की कवायदों के बीच उन्होंने कहा कि जब तक भारत जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक स्थिति नहीं बदलता तब तक द्विपक्षीय रिश्ते आगे नहीं बढ़ाने चाहिए।
भारत से कपास एवं चीनी आयात को लेकर इमरान के रवैये में आया अचानक बदलाव
भारत से कपास एवं चीनी आयात को लेकर इमरान खान के रवैये में अचानक आए बदलाव का विश्लेषण करें तो उससे पाकिस्तान के मौजूदा आर्थिक हालात, राजनीतिक रस्साकशी और भारत के खिलाफ उस गहरी दुश्मनी के भाव की तस्वीर दिखेगी जो वहां के एक बड़े और प्रभावशाली वर्गों में गहरी पैठ किए हुए है। इनमें पाकिस्तानी राजनीतिक-सामरिक बिरादरी और सेना शामिल हैं। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। जहां उसकी आबादी तेजी से बढ़ रही है वहीं अर्थव्यवस्था गतिहीन हो गई है। कट्टरपंथी सोच में लगातार विस्तार और तमाम आतंकी संगठनों की मौजूदगी के कारण अंतरराष्ट्रीय निवेशक उससे परहेज किए हुए हैं। देश के आर्थिक हालात सुधारने के लिए वहां ढांचागत सुधार अपरिहार्य हो गए हैं, परंतु उन्हें मूर्त रूप देने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। विदेशी सहायता पर पाकिस्तान की निर्भरता कम नहीं हुई है, जबकि उसके पारंपरिक मददगार उसकी मदद करते-करते उकता गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष इमरान सरकार से उसका एजेंडा लागू करने की मांग कर रहा है। फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की ग्र्रे सूची से भी पाकिस्तान बाहर नहीं आया है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपैक) भी पाकिस्तान के लिए वैसा बाजी पलटने वाला साबित नहीं हुआ जैसी उससे उम्मीद की जा रही थी।
पाक को जम्मू-कश्मीर पर अपना रुख बदलना होगा
ऐसी विकट आर्थिक परिस्थितियों से पाकिस्तान तभी बाहर निकल सकता है जब वह भारत के साथ शांति कायम करे। अन्यथा उसकी अर्थव्यवस्था कुछ रेंगती हुई आगे बढ़ेगी या और नीचे चली जाएगी। इसमें दूसरी स्थिति के आसार ही अधिक हैं। भारत के साथ शांति स्थापित करने की राह में पाकिस्तान के राजनीतिक एवं सामरिक वर्ग को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। तत्पश्चात ही जनता की सोच बदलेगी। उसे जम्मू-कश्मीर पर अपना पारंपरिक रुख भी परिवर्तित करना होगा। यह तो नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तानी नेता अपनी जनता से यह कहेंगे कि उन्हें भारत नीति पर नए सिरे से विचार करना होगा, लेकिन बीते दिनों कुछ ताजगी भरे बयान अवश्य आए। सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा और प्रधानमंत्री इमरान खान दोनों ने ऐसी बातें कीं। बाजवा ने कहा कि पाकिस्तान को भारत के साथ अपने अतीत को दफन करने की दरकार है और मौजूदा हालात में अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करना भी राष्ट्रीय सुरक्षा का ही भाग है। यह नई सोच कोई तिकड़म ही क्यों न हो, उससे जाहिर होता है कि पाकिस्तान भारत के साथ संबंधों को पटरी पर लाने की दिशा में कुछ हल्की-फुल्की ही सही, पहल तो कर रहा है। मोदी सरकार ने इस पर सधी हुई सतर्क प्रतिक्रिया दी और स्पष्ट है कि पर्दे के पीछे वार्ता की कुछ कड़ियां जुड़ी हैं।
रिश्तों को सुधारने की कवायद का पाक का सत्तारूढ़ दल समेत कई विपक्षी दलों ने किया विरोध
रिश्तों को सुधारने की इस कवायद का न केवल पाकिस्तान के सत्तारूढ़ दल, बल्कि कई विपक्षी दलों के नेताओं ने भी विरोध किया है। पाकिस्तानी सेना में बैठे कुछ लोगों की शह के बिना वे ऐसा नहीं कर सकते। यानी भारत को लेकर नीति पर पाकिस्तानी सेना में ही मतभेद हैं। जनरल बाजवा सभी कमांडरों को लामबंद करने में सक्षम नहीं हुए। फिलहाल वह सेवा विस्तार पर हैं और जबसे उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया है तबसे सेना के भीतर उनकी प्रतिष्ठा पर कुछ आंच अवश्य आई है। भारत को इन पहलुओं पर ध्यान देना होगा, भले ही उसने भी कुछ छोटे-छोटे कदम उठाने शुरू किए हैं। भारत ने बीते दिनों सिंधु जल आयोग की बैठक, एक पाकिस्तानी स्पोट्र्स टीम को अनुमति देने के अलावा आतंक को लेकर हिदायतों के साथ पाकिस्तान दिवस पर शुभकामनाएं दीं। इस मोर्चे पर भारत कैसे एहतियात बरत रहा है वह बीते दिनों दुशांबे में दिखा जहां विदेश मंत्री एस जयशंकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री से नहीं मिले।
पाक आर्थिक दुश्वारियां झेल सकता है, मगर भारत के प्रति शत्रुता भाव छोड़ना मंजूर नहीं
तमाम पाकिस्तानी आर्थिक दुश्वारियां झेलने को तो तैयार हैं, मगर भारत के प्रति शत्रुता भाव छोड़ना उन्हें मंजूर नहीं। इस दुश्मनी की जड़ें उसी द्विराष्ट्र सिद्धांत से जुड़ीं हैं जिस आधार पर पाकिस्तान बना। पाकिस्तान के साथ शांति के अवसरों की तलाश में भारतीय नीति निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा। फिलहाल उन्हें सतर्क रहना होगा कि बाजवा और इमरान को शर्मिंदा करने के साथ ही भारत को प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर मजबूर करने के लिए वहां का सैन्य-सियासी वर्ग किसी दुस्साहस को अंजाम देने में सफल न होने पाए।