पलायन के रिसते घाव लिए कैसे मुस्कुराएगा इंडिया ?

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कोरोना के इस संकट काल में अब देश के हालातों पर किसी भी तरह की पर्देदारी नहीं है। इसीलिए ज़्यादा इधर उधर की बात ना करते हुए हमें मूल विषय को पकड़ना चाहिए। 24 मार्च से लेकर अब तक चार चरणों का देश व्यापी लॉक डाउन 56 दिनों का हो चुका है।

इन 56 दिनों में देश के राजनीतिक,सामाजिक,प्रशासनिक,और आर्थिक सच आपके हमारे सामने एक दम निर्वस्त्र खड़े हुए हैं। अगर इस बात पर आपको ज़रा भी शंका है तो मुझे शक है,आपकी संवेदनाएं कहीं अंतिम सांसों की ओर ना हो। मौजूदा दौर में इस देश के बिलखते राज्यमार्गो की चित्कारों से आप अब भी अंजान है तो ये आपके इंसान होने पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है।

इन 56 दिनों में इस देश के हुक्मरानों ने देश की आज़ादी से लेकर अब तक की विकास यात्राओं की बुनियादों को कुचलकर रख दिया है। ईंट, गिट्टी, पत्थर,दग्गड़ ढोने से लेकर मेट्रो सिटी बनाने तक। ज़मीन से लेकर आसमान में आराम दायक सफ़र बनाने तक। खेत में लहलहाती फसलों से लेकर अंतरिक्ष की यात्राओं तक। बैलगाड़ी से उतारकर एक्सप्रेस वे की सुपर फ़ास्ट स्पीड इस मुल्क के हाथों में थमाने तक। वन बीएचके फ़्लैट से लेकर सर्व सुविधा संपन्न एंटीलिया जैसे आलिशान महलों के निर्माणों की विकास यात्रा की बुनियाद कौन लोग, हैं आप जानते हैं ? तो जवाब है ‘मजदूर’।

बेशक, मजदूर नाम आते ही आपको आपके बौद्धिक और शैक्षणिक बल पर प्रहार सा महसूस हुआ होगा। होना भी चाहिए, क्योंकि आप और हम हमेशा इस सच को दुत्कारते हुए आए हैं। मजदूरों को बदइंतज़ामी की आग में झोंककर सरकार का ये असंवेदनशील रवैया देश के लिए बहुत बहुत ज़्यादा घातक साबित होगा। हमें ये नहीं भूलना चाहिए इस देश के निर्माण में लगी एक एक ईंट इन्हीं मजदूरों का कर्ज़ है जिसे कोई भी सत्ताधीश या कोई भी धनकुबेर कभी नहीं चुका पाएगा। प्रवासी मजदूरों ने इस देश की सियासत को सिरे से ख़ारिज कर दिया है और निकल पड़े हैं अपनी जड़ों की ओर यह ठानकर, जब मरना ही है तो अपने घर की चौखटों पर ही मरेंगे।

मजदूरों का यह पलायन केंद्र और देश की सभी राज्य सरकारों के मुंह पर एक ऐसा तमाचा है जिससे इस देश के सत्ताधीश कभी इन मजदूरों से नज़रें नहीं मिला पाएंगे। आग उगलती जिस गर्मी में आप और हम अपने घरों की बालकनियों में चंद मिनटों के लिए खड़े नहीं हो सकते हैं। ऐसे गर्मी के मौसम में लाखों मज़दूरों के हुज़ूम निकल पड़े है मीलों का सफ़र तय करने के लिए। अपनी ज़िंदगी दाव पर लगाकर,ज़िंदगी के वास्ते। देश के राज्यमार्गो से आ रही तस्वीरें देख कलेजा मुंह को आ जाता है। राज्यमार्गो से आ रही एक एक कहानी हमारी व्यवस्थाओं के चीथड़े उड़ती जा रही है और हम बड़ी बेशर्मी से कोरोना पर जीत की कहानियां रचने में लगे हैं।

फूलों की तरह नाज़ुक बच्चे इस देश की नाकारा सियासत की भेंट चढ़ भूखे प्यासे धूप में झुलसे जा रहे हैं। पैरों में चप्पल नहीं है और सड़कें अंगारों की तरह धधक रही हैं तो पानी की बोतल को ही चप्पल बना लिया है। बच्चा थक गया है तो मां उसे ट्रॉली बैग पर लटकाकर घसीटती हुई जा रही है। पलायन के ये दृश्य आत्मा को झकझोर देते हैं,बशर्ते आप इंसान हो राजनेता नहीं। आप गौर कीजिए,झुलसते बच्चों की आह से इस देश की व्यवस्था खाक हो रही है। पैरों में प्लास्टिक की बोतलें पहनकर मजदूर राज्यमार्गो पर सत्ता के अभिमान को कुचलकर अपने साहस की कहानियां बयां कर रहे है। याद रहे सूटकेस पर एक मां बच्चे को नहीं, जीवन भर मेहनत के बदले में इस देश से मिली नाउम्मिदियों की लाश को घसीट रही थी।

कोरोना ने इस मुल्क के चौराहों पर राजनीति का जो असली चेहरा उजागर किया है वो आने वाली सदियों में भी कभी नहीं हो पाता। इस दौर में हमने क्या क्या नहीं देखा है। मजदूरों के रेल की पटरी पर उधड़े पड़े मांस के लोथड़े देखे। दर्ज़नों मजदूरों की बिखरी हुई लाशें देखी। भेड़ बकरियों की तरह ट्रकों में भरकर जाते हुए मजदूर हमने तब देखे जब इस देश के प्रधानमंत्री ने सोशल डिस्टेंसिंग को अपना सूत्र वाक्य बना रखा है। मजदूर ट्रकों में भी अपनी जेब का पैसा देकर जा रहे हैं और सुंदरियों को एक राज्य से दूसरे राज्य में छोड़ने के लिए सेना के हेलीकॉप्टर इस्तमाल किए जा रहे हैं।सब कुछ आपके सामने हैं जोड़ घटाव भी आपको ही करना है।

आप सभी को मालूम हो, मजदूरों की मौतों की जवाबदेही अब तक किसी की नहीं है। इस देश में ग़रीब सड़ने मरने और दुख भोगने के लिए ही पैदा होता है और इन सभी अभिशापों के साथ दुनियां छोड़ देता है। मौतों की जवाबदेही जिस तरह से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच फुटबाल बनाई जा रही है वो अपने आप में बेहद वीभत्स खेल है। मजदूरों के अस्तित्व पर परोपकारों की चंद रुपल्ली फेंकने वाले सत्ताधीशों को ये नहीं भूलना चाहिए इस देश के निर्माण में मजदूरों का योगदान बदरंग हो चुकी खादी से बहुत बहुत ज़्यादा हैं।बहुत आश्चर्य होता है कि मीलों इस देश की सड़कों पर हो रही मजदूरों की चौतरफ़ा पदचापों को इस देश की सियासत ने एक तमाशा बनाकर छोड़ दिया है।

अपने अपने घरों की ओर मजदूरों का बढ़ता हुआ हर एक क़दम सरकारों की ओर सैंकड़ो सवालों को उछाल रहा है लेकिन अफ़सोस की बात है उन सवालों को सवाल बनाए रखने वाले लोग अपने अपने एजेंडे से बंधे बैठे हैं। अब हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के राज्यमार्ग अब सिर्फ़ राज्यमार्ग नहीं रह गए है। ये बदहाली के वो दस्तावेज़ो में तब्दील हो चुके जो हमारी मानव सभ्यता की आत्मा को नोचते रहेंगे। लॉक डाउन 56 दिनों से निरंतर जारी है और जारी प्रवासी मजदूरों का पलायन। लाखों मजदूर अब तक घर नहीं पहुंचे सके हैं। इसका ज़िम्मेदार आप किसे ठहराएंगे ? इसके जवाब के लिए आपको अपनी मर्यादाएं लांघनी ही पड़ेंगी। क्योंकि इसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी हमारे देश की सियासत है। जिसमें आपके पंसदीदा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनेता शामिल हैं।

कहने को हम अंतरिक्ष में अपना परचम लहरा चुके हैं। सेटेलाइट्स उड़ाने वाली मिसाइलें बना चुके हैं। बड़े युद्धपोतों का निर्माण कर चुके हैं। अब ऐसी विकास यात्राओं के मुंह पर कालिख पोतता हुए एक छोटा सा सवाल बस यह है, ऐसी क्या वजह है जो इस देश के हुक्मरान ग़रीब मजदूरों को 56 दिनों में उनके घरों तक पहुंचाना तो दूर,अब तक उन ग़रीब मजदूरों को मूलभूत सुविधा मुहैया कराने के लिए कोई खांका तक नहीं खींच पाएं हैं? इसके जवाब के लिए हमें हमारे ज़हनों में गोते लगाने होंगे। क्योंकि इसका जवाब आपको इस देश के व्यवस्थापक एहसानों की योजनाएं से देंगे।

एक ना एक दिन हम इस कोरोना पर भी विजय प्राप्त कर लेंगें। देश की सारी व्यवस्थाएं पटरी पर लौट आएगी। जिस व्यवस्था ने इस देश के श्रमवीरों को दरबदर कर छोड़ा है, वही व्यवस्था चुनावों में बड़ी बेशर्मी से इनकी चौखटों पर वोट की फ़सल काटने के लिए भी लौट जाएगी। लेकिन अगर अब कुछ वापस नहीं लौटेगा तो वो है इस देश के मजदूरों का भरोसा,जिसे हमारे देश की राजनीति ने बुरी तरह छिन्न भिन्न कर दिया है। सनद रहे मजदुरों के साथ हुआ ये बर्ताव आपको हमको और इस देश के एक एक नागिरक के लिए चेतावनी से कम नहीं है। हमारे हाक़िम कभी भी किसी के भी लिए इतने ही बेशर्म और निष्ठुर हो सकते हैं जितने इन ग़रीब मजदूरों के प्रति हुए हैं। इस पूरे घटनाक्रम पर अब सवला बस इतना है, अपने जिस्म पर पलायन का घाव लिए कैसे मुस्करा पाएगा इंडिया ?

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