मध्य प्रदेश के विजयपुर उपचुनाव के नतीजे स्थानीय उम्मीदवार के साथ-साथ राज्य की व्यापक राजनीतिक कहानी के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ है. वन और पर्यावरण मंत्री रामनिवास रावत , जो कांग्रेस से बीजेपी (BJP) में शामिल हुए थे, की हार इस संदर्भ में एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम है, कांग्रेस के उम्मीदवार मुकेश मल्होत्रा से मिली 7,000 से अधिक वोटों से हार ने चंबल की अस्थिर राजनीतिक स्थिति को उजागर किया है. रामनिवास रावत के लिए यह हार केवल एक चुनावी हार नहीं है, बल्कि उनकी राजनीतिक साख और मंत्री पद पर भी संकट खड़ा करती है. कांग्रेस से बीजेपी में शामिल होने और विजयपुर में पार्टी की स्थिति मजबूत करने के वादे के साथ आए रावत की इस सीट पर जीतने में विफलता ने उनकी उपयोगिता पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
विफल रही रणनीति
बीजेपी की कांग्रेस के इस पारंपरिक गढ़ में पकड़ बनाने के लिए रावत को शामिल करने की रणनीति विफल साबित हुई है. हालांकि कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे मुकेश मल्होत्रा भी पहले बीजेपी में थे, 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री भी बनाया गया था.
यह हार चंबल जैसे क्षेत्रों में बीजेपी की रणनीति पर भी सवाल खड़े करती है, जहां जातिगत समीकरण और मतदाता की निष्ठा जैसे स्थानीय कारक व्यापक पार्टी कथाओं पर हावी रहते हैं. विजयपुर, जहां 65,000 आदिवासी मतदाता कुल मतों का 25-30% हिस्सा बनाते हैं, इस जटिलता का प्रतीक है. रावत की पाला बदलने और मंत्री बनने के बावजूद बीजेपी यहां जीत दर्ज नहीं कर सकी, जो पार्टी की रणनीति और जमीनी सच्चाइयों के बीच संभावित डिस्कनेक्ट को दर्शाता है.
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने जुलाई के बाद से विजयपुर के खूब दौरे किये, जो साबिक करता है कि बीजेपी इस उपचुनाव को कितनी अहमियत दे रही थी. मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत भागीदारी और संसाधनों की तैनाती के बावजूद हार बीजेपी के लिए एक झटका है. कांग्रेस, खासकर विपक्ष, इस परिणाम का इस्तेमाल मुख्यमंत्री की राजनीतिक समझदारी और चुनावी परिणाम देने की क्षमता पर सवाल उठाने के लिए करेगी.
जातिगत राजनीति का दिखा गहरा प्रभाव
हालांकि, मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने इस हार को कम महत्व दिया है, यह कहते हुए कि 2018 में 18,000 वोटों के अंतर से हार के मुकाबले इस बार का 7,000 का अंतर कम है. बावजूद इसके, विपक्ष इस हार को सरकार में जनता के घटते विश्वास के रूप में पेश करेगा.
चंबल क्षेत्र, खासकर विजयपुर, में जातिगत राजनीति का गहरा प्रभाव है. इस उपचुनाव में भी जातिगत समीकरण विकास जैसे अन्य मुद्दों पर भारी पड़े. मुकेश मल्होत्रा की जीत का कारण उनके सहारिया समुदाय से जुड़े होने को माना जा सकता है, जिसका इस क्षेत्र में बड़ा प्रभाव है. इसके अलावा, बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के उम्मीदवार का इस बार चुनाव नहीं लड़ना भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा. पिछले चुनाव में बीएसपी के उम्मीदवार ने 34,000 से अधिक वोट लिए थे, जो इस बार कांग्रेस के खाते में गए लगते हैं, जिससे कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई.
विजयपुर में हार का असर बीजेपी की राज्य की राजनीति पर पड़ेगा. पार्टी नेतृत्व, जिसमें प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी शामिल हैं, ने कार्यकर्ताओं से इस हार को स्थानीय हार मानने और इसे सरकार के प्रदर्शन पर जनमत संग्रह न मानने का आग्रह किया है. इसके बावजूद, कांग्रेस के “पारंपरिक सीट” वाले नैरेटिव को इस जीत से और बल मिला है.
BJP की हार क्या कहती है?
बीजेपी के लिए, यह हार उन चुनौतियों को भी दल बदलू नेताओं को अपने पाले में शामिल करने की अपनी चुनौतियों को दर्शाती है. रावत जैसे नेताओं के पुराने राजनीतिक रिकॉर्ड के बोझ को संभालने और पारंपरिक कांग्रेस गढ़ों में सेंध लगाने में पार्टी की क्षमता पर सवाल खड़े हो गए हैं.
कांग्रेस के लिए विजयपुर में जीत एक मनोबल बढ़ाने वाली घटना है और इसकी जमीनी रणनीति की पुष्टि करती है. पार्टी ने इस उपचुनाव को अपनी परंपरागत वोटरों की निष्ठा की परीक्षा के रूप में पेश किया, और यह रणनीति सफल रही. प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी का कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साहस और समर्पण को स्वीकार करना पार्टी के अपने जमीनी कार्यकर्ताओं को संगठित करने के प्रयास को दर्शाता है.
विजयपुर उपचुनाव ने मध्य प्रदेश में राजनीतिक समीकरणों की नाजुकता को उजागर किया है. बीजेपी के लिए, यह हार दिखाती है कि हाई-प्रोफाइल प्रचार और पाला बदलने वाले नेताओं के जरिए जीत हासिल करना पर्याप्त नहीं है. कांग्रेस के लिए, यह जीत उसके पारंपरिक गढ़ों में अपनी ताकत का पुन: प्रमाण है और खोई हुई जमीन वापस पाने का मौका है.
रामनिवास रावत की राजनीतिक यात्रा में हाल के वर्षों में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. 2020 में, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा, तब रावत ने कांग्रेस में बने रहने का निर्णय लिया. यह निर्णय उनके लिए चुनौतीपूर्ण साबित हुआ, क्योंकि वे सिंधिया परिवार के करीबी माने जाते थे. सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद, रावत को कांग्रेस में अपेक्षित सम्मान और पद नहीं मिला, जिससे वे असंतुष्ट हो गए.
अब आगे क्या?
2024 में, रावत ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में प्रवेश किया. उनके मंत्री पद की शपथ ग्रहण समारोह में एक असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई, जब उन्होंने “राज्य मंत्री” के बजाय “राज्य के मंत्री” के रूप में शपथ ली, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे कैबिनेट मंत्री हैं या राज्य मंत्री. इस गलती के कारण शपथ ग्रहण समारोह को 10 मिनट के भीतर दोबारा आयोजित करना पड़ा.
रावत की यह यात्रा दर्शाती है कि राजनीतिक दल बदलने के बाद भी स्पष्टता और स्थिरता की कमी हो सकती है. सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद रावत का कांग्रेस में रहना, फिर बाद में भाजपा में शामिल होना, उनके राजनीतिक निर्णयों में असमंजस को दर्शाता है. यह घटनाक्रम बताता है कि राजनीतिक परिवर्तनों के दौरान नेताओं को स्पष्ट रणनीति और निर्णय लेने की आवश्यकता होती है.