27 सालों से अटका है महिला आरक्षण बिल, सीएम योगी भी कर चुके हैं एक बार विरोध, जानिए इस लिस्ट में और कौन?

18 सितंबर को शुरू हुए विशेष सत्र के पहले दिन ही मोदी सरकार की कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूरी दे दी. इस बिल को सबसे पहली बार साल 1996 के सितंबर महीने में एचडी देवगौड़ा की सरकार ने पेश किया था. इस साल के बाद हर सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पारित कराने की कोशिश की.

साल 2010 में तो यूपीए सरकार इस बिल को राज्यसभा में पारित कराने में सफल भी हो गई लेकिन लोकसभा में यह लटक गया. इस विधेयक को भले ही आज मंजूरी मिल गई हो लेकिन इसके इतिहास को देखें तो पाएंगे कि पिछले 27 सालों की इसकी यात्रा बिलकुल आसान नहीं रही है. ऐसे में इस खबर में जानते हैं कि आखिर कब-कब इस विधेयक को संसद में पेश किया गया और विरोध में कौन-कौन नेता रहे.

1996 में क्यों पास नहीं हो सका बिल

एचडी देवगौड़ा की सरकार ने जब संसद में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक को पेश किया था. उस वक्त देश में 13 पार्टियों के गठबंधन वाली यूनाइटेड फ्रंट की सरकार थी. लेकिन जनता दल और कुछ अन्य पार्टियों के नेता विधेयक को पारित कराने के पक्ष में नहीं थे. इन पार्टियों और नेताओं के विरोध के चलते महिला आरक्षण विधेयक को सीपीआई की गीता मुखर्जी की अगुवाई वाली 31 सदस्यीय संसदीय संयुक्त समिति के पास भेजा गया.

इस समिति में नीतीश कुमार, शरद पवार, विजय भास्कर रेड्डी, ममता बनर्जी, मीरा कुमार, सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज, सुशील कुमार शिंदे, उमा भारती, गिरिजा व्यास, रामगोपाल यादव और हन्नाह मोल्लाह शामिल थे.

31 सदस्यों की इस समिति ने विधेयक में सात बड़े सुझावों का प्रस्ताव रखा. उनका कहना था कि इस विधेयक महिलाओं के लिए आरक्षण के संबंध में ‘एक तिहाई से कम नहीं’ वाक्य स्पष्ट नहीं हैं. समिति का सुझाव था कि इसे ‘लगभग एक तिहाई’ लिख जाना चाहिए ताकि स्पष्ट हो सके.

नीतीश कुमार ने किया था विरोध

31 सदस्यीय समिति का हिस्सा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी थे. उन्होंने इस विधेयक का विरोध करते हुए असहमति नोट में कहा था, ‘महिला आरक्षण विधेयक देश की अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति महिलाओं को आरक्षण दिए जाने की बात करता है. लेकिन मुझे लगता है कि ओबीसी महिलाओं को भी आरक्षण मिलना चाहिए. इसलिए विधेयक में जिस एक तिहाई आरक्षण का जिक्र है उसमें ओबीसी की महिलाओं को भी रखा जाना चाहिए. इसके अलावा इस बात का भी ख्याल रखा जाए कि ये आरक्षण ओबीसी महिलाओं के लिए भी सही अनुपात में हो.

शरद पवार ने विधेयक के विरोध में दे दिया था विवादित बयान

16 मई 1997 को लोकसभा में एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया. लेकिन इस बार सत्तारूढ़ गठबंधन में ही इसे पारित कराने के लेकर विरोध की आवाजें उठने लगीं. शरद यादव ने उस वक्त विधेयक के विरोध में बहस करते हुए कहा था, ‘इस बिल से सिर्फ ‘परकटी’ औरतों का ही फायदा पहुंचेगा. परकटी शहरी महिलाएं हमारी ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे करेंगी.’

शरद पवार के इस बयान ने उस दौर में काफी विवाद खड़ा किया था. शरद के अलावा भी हिंदी भाषी क्षेत्र के नेताओं ने इस विधेयक का जमकर विरोध किया था. जिसके कारण एक बार फिर इस बिल को पास नहीं किया जा सका.

विरोध के बीच बिल की कॉपी छीन टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे

साल 1998 में इस बिल को लेकर आरजेडी और समाजवादी पार्टी के सांसदों ने जमकर विरोध किया. विरोध और हंगामा इस हद तक बढ़ गया कि सदन के बीच में ही आरजेडी सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने लोकसभा के स्पीकर जीएमसी बालयोगी से बिल की कॉपी छीनी और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए.

बिल की कॉपी फाड़ने पर उन्होंने तर्क दिया कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि क्योंकि बीआर अंबेडकर उनके सपने में आए थे और उन्होंने ऐसा करने के लिए कहा था.

कॉलर पकड़ निकाल दिया गया था सदन से बाहर

11 दिसंबर 1998 को एक बार फिर महिला आरक्षण बिल को लेकर सभी पार्टियों के बीच घमासान मचा. उस वक्त इस बिल का विरोध कर रहे समाजवादी पार्टी के तत्कालीन सांसद दरोगा प्रसाद सरोज को ममता बनर्जी ने कॉलर पकड़कर सदन से बाहर निकाल दिया था.

साल 2004 में आरजेडी और सपा के सांसदों ने किया विधेयक का विरोध

भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में एनडीए सरकार ने साल 1998, 1999, 2002 और 2003-2004 में भी इस बिल को पारित कराने की कोशिश की, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी के सांसदों के लगातार विरोध ने विधेयक को पास होने से रोके रखा.

यूपीए सरकार ने भी की विधेयक पारित करवाने की कोशिश

साल 2004 से भारतीय जनता पार्टी सरकार जाने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में सत्ता में आई यूपीए सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी विधेयक को पारित कराने की कोशिश की लेकिन नाकाम ही रहे.

साल 2008 में यूपीए सरकार ने 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किया. वहां यह बिल नौ मार्च 2010 को भारी बहुमत से पारित हुआ. बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था.

हालांकि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल अब भी इस विधेयक का विरोध कर रहे थे और ये दोनों पार्टियां यूपीए का हिस्सा थी. यही कारण है कि यूपीए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया. कांग्रेस को डर था कि अगर उसने बिल को लोकसभा में पेश किया तो उसकी सरकार ख़तरे में पड़ सकती है.

योगी आदित्यनाथ ने भी किया था इस विधेयक का विरोध

साल 2010 में जब महिला आरक्षण बिल पर चर्चा हो रही थी. उस वक्त भारतीय जनता पार्टी ने विधेयक का समर्थन किया था. लेकिन वर्तमान में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ इसके खिलाफ थे. अंग्रेजी वेबसाइट टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर की मानें तो योगी आदित्यनाथ के संगठन हिंदू युवा वाहिनी के मुखपत्र ‘हिंदवी’ में उनका एक लेख छपा था. इसमें उन्होंने शास्त्रों का हवाला देकर महिलाओं का महिमामंडन तो किया, लेकिन संसद में 33 फीसदी आरक्षण का विरोध करते हुए लिखा था, ‘ संवैधानिक स्थिति एवं कानूनी दर्जा पाने के कारण आरक्षण का प्रत्यक्ष विरोध भले ही दब गया हो लेकिन आरक्षण के कारण योग्यता के बावजूद अवसरों से वंचित वर्गों और लोगों के मस्तिष्क में व्यापक असंतोष तो है ही. ऐसी स्थिति में पहले से पड़ी दरार और चौड़ी ना हो और ना ही कोई दूसरी दरार पैदा की जाए, यह हमारी कोशिश होनी चाहिए.’

साल 2017 में एक बार फिर जब महिला आरक्षण बिल का मामला चर्चा में आया तो रणदीप सुरजेवाला ने इसी लेख का हवाला देते हुए योगी आदित्यनाथ से माफी की मांग की थी. सुरजेवाला ने कहा, ‘जहां एक तरफ देश के प्रधानमंत्री मोदी महिलाओं को समानता का हक देने की बात करते हैं, वहीं ये लेख महिलाओं को लेकर बीजेपी की मानसिकता दर्शाता है. उन्होंने कहा कि मोदी और अमित शाह को इस लेख की निंदा करनी चाहिए और अपने नेताओं को ऐसे बयानों से बाज आने के लिए कहना चाहिए.

हालांकि जब मामले ने तूल पकड़ लिया तो ‘हिंदवी’ के पूर्व संपादक प्रदीप राव अपने एक बयान में कहा कि जिस वक्त ये लेख छपा था उस वक्त योगी आदित्यनाथ इस मैगजीन के चीफ एडिटर थे. पूर्व संपादक के मुताबिक वेबसाइट पर ये लेख कुछ साल पहले अपलोड किया गया था और उनके साथ योगी भी इसमें लिखी गई बातों पर कायम हैं.

अब जानते हैं आखिर ये महिला आरक्षण बिल क्या है

दरअसल इस विधेयक में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीट को आरक्षित करने का प्रावधान है. वर्तमान में लोकसभा में 78 महिला सांसद हैं जो कुल सांसदों का 14 प्रतिशत है. वहीं राज्यसभा की बात करें तो यहां महिला सांसदों की संख्या सिर्फ 32 प्रतिशत है जबकि कई राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से भी कम है.

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