नई दिल्ली । 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली है, तबसे अमित शाह के साथ मिलकर उन्होंने सत्ता और संगठन को चलाया है। आज भाजपा भले ही विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गई है, लेकिन इसमें केवल मोदी और शाह की चलती है। नई दिल्ली में सत्ता, संगठन और संघ की बैठक नियमित रुप से हो रही है। मैराथन बैठक बिना निर्णय के ही खत्म हो रही है। अब कहा जा रहा है कि मोदी और शाह पिछले 10 साल में पहली बार इतने दबाव में है कि कोई निर्णय नहीं कर पाए।
दरअसल, संभावना जताई जा रही है कि जून के दूसरे या तीसरे सप्ताह में मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। केंद्रीय संगठन में भी फेरबदल होगा। लेकिन 5 दिनों तक चली मैराथन बैठक में कोई निर्णय नहीं हो पाया। कई राज्यों के मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्षों को बदलने के बारे में कोई निर्णय मोदी-शाह नहीं ले पा रहे हैं। कर्नाटक से शुरु हुई बगावत का असर अन्य राज्यों में भी देखने को मिल रहा है। जिसके कारण लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए मोदी-शाह की जोड़ी निर्णय नहीं ले पा रही है। संघ एवं भाजपा के केंद्रीय संगठन में यह चर्चा आम हो चली है। सूत्रों का कहना है कि हर बार की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह अपने निर्णय से सबको अवगत कराते थे। उसे हर कोई सहर्ष मान लेता था। लेकिन हाल ही में हुई बैठक में दोनों नेता इस कदर दबाव में थे, कि वे न तो संगठन और न ही सरकार के बारे में कोई निर्णय ले पाए।
विपक्षी एकता और अंतर्राष्ट्रीय दबाव
भाजपा सूत्रों का कहना है कि मोदी और शाह वर्तमान समय में जिस तरह के दबाव में हैं, पिछले 9 साल के दौरान वे कभी नहीं देखे गए। उनका कहना है कि एक तो विपक्षी एकता और अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ गया है। अभी तक निरंकुश होकर काम करने वाले इन नेताओं को हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की हार ने तोड़ दिया है। वहीं मिशन 2024 के लिए जिस तरह विपक्ष एकजुट हो रहा है, उससे इनकी चुनौती बढ़ गई है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी लगातार बढ़ रहा है। एक तो पड़ोसी देशों से संबंध खराब हैं, वहीं दूसरी तरफ रूस और यूके्रन युद्ध में स्पष्ट भूमिका नहीं होने के कारण भारत पर लगातार अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। इसका असर निवेश पर भी पड़ा है।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं-कानूनों से घबराई सरकार
दरअसल, जिस तरह विपक्ष को कमजोर कर भाजपा ने देश में सरकार चलाई है, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को ताक पर रख दिया गया है, वहीं कानूनों का भी जमकर उल्लंघन हुआ है। दसवें साल में स्थिति अनुकूल नहीं रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं सरकार पर हावी होने लगी हैं। वहीं वह खुद कानून के घेरे में आने लगी है। दरअसल, जिस तरह सरकार ने जांच एजेंसियों का उपयोग विपक्ष को नियंत्रित करने में दुरुपयोग किया है, उससे विपक्षी एकता को बल मिला है। अब वही एकता सरकार और भाजपा पर भारी पड़ने लगी है। मोदी और शाह को यह डर सताने लगा है, कि उन्होंने मनमाने तरीके से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और कानूनों का दुरुपयोग तो कर लिया है, लेकिन इसका दुष्परिणाम उन्हें चुनाव में न पड़े। इसलिए दबाव में हैं।
मणिपुर हिंसा और एलएसी पर अतिक्रमण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के दबाव में होने की एक वजह है मणिपुर में हो रही हिंसा और एलएसी यानी चीन की सीमा पर तेजी से बढ़ रहा अतिक्रमण। अभी तक दोनों नेता हर मंच से दावा कर रहे थे कि देश में कानून व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय सीमाएं इतनी दुरुस्त है, कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता। लेकिन मणिपुर में पिछले करीब डेढ़ माह से लगातार हिंसक वारदातें हो रही हैं। इसमें एक सैकड़ा से अधिक लोगों की जान चली गई है, लेकिन सरकार के तमाम दावों के बाद भी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। इससे सरकार दबाव में आ गई है। उधर, एलएसी पर चीन लगातार अतिक्रमण बढ़ाते जा रहा है। उसने सैन्य छावनी तक बना ली है। सरकार अभी तक इस मामले को छिपाते आ रही थी, लेकिन सैटेलाइट के चित्रों ने पोल खोल दी है। इसका सबसे ज्यादा असर पीएम मोदी और और अमित शाह की छबि पर पड़ा है।
पहली बार मोदी-शाह पर उठा सवाल
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होने और लगातार चुनाव जीतते जाने के क्रम में पहली बार ऐसा हुआ है कि उनकी क्षमता और छबि पर सवाल उठा है। उनकी रैलियों और उनके प्रचार के तरीके पर भी सवाल बड़े हो रहे है। यहां तक कि उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी दोनों पर सवाल उठे हैं। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हरा पाने में बुरी तरह से विफल होने के बाद प्रदेश भाजपा के नेताओं ने ही मोदी और शाह दोनों पर सवाल उठाए हैं। जानकार सूत्रों का कहना है कि पार्टी के कई नेताओं ने पहले ही केंद्रीय नेतृत्व को बता दिया था कि कर्नाटक में क्या नतीजा आना है। यह भी कहा जा रहा है कि प्रदेश भाजपा के किसी नेता को मोदी और अमित शाह के जीत के दाव पर भरोसा नहीं था। उसके बाद भी ये लगातार जीत का दावा कर रहे थे और 7 हजार से अधिक चुनावी सभाएं करने के बाद भी पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। इससे पहली बार मोदी-शाह पर सवाल उठा है।