भारत में केवल आर्थिक असमानताएं ही नहीं हैं जल वितरण को लेकर भी बहुत सारी असमानताएं हैं। एक तरफ ग्रामीण महिलाएं रोज चार किलोमीटर दूर पैदल जाकर पानी ला रही हैं तो दूसरी ओर कुछ लोग पूल में नहाकर पानी की बर्बादी कर रहे हैं। जो हमारे परंपरागत कुएं, बावड़ी, कुएं हैं उसकी हम लगातार उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए वे दिनों दिन खो रहे हैं। अतः जरूरी है कि जल के लिए लगातार आंदोलन चलाए जाएं।
यह कहना है पर्यावरणविद् एवं मीडियाकर्मी डॉ. क्षिप्रा माथुर का। वे आज अभ्यास मंडल के मंच पर प्रेस क्लब सभागृह में मासिक व्याख्यान में मुख्य वक्ता के बतौर बोल रहीं थी। धरातल और जल आंदोलन विषय पर बोलते हुए डॉ. क्षिप्रा माथुर ने आगे कहा कि हमारे जीवन की सबसे अधिक बुनयादी जरूरत पानी है और उसके बिना हम जी नहीं सकते, लेकिन उसी पानी के लिए आज चारों और हाहाकार है। दक्षिण अफ्रीका के केप्टाउन जैसी स्थिति चेन्नई ही नहीं और भी कई शहरों में बनती जा रही है। सबसे महान नदी गंगा ही नहीं और भी कई नदियां गंदी और प्रदूषित हैं। आज पानी से हमारा रिश्ता दिनों दिन टूटता जा रहा है। अब हम नदी, तालाब, झरने, सागर के पास नहीं जाते हैं उनकी कलकल की आवाज नहीं सुनते और उनसे हम रिश्ता नहीं रखते।
पहले कुएं का पानी लेने से पहले हम उसकी पूजा करते थे
पहले कुएं पर पानी लेने जाते थे तो उसकी पूजा करते थे, मंगल गीत गाते थे। अगर कम पानी है तो उसकी गाद निकालकर उसको गहरा करते थे। आज हमारे घरों में नल लग गए। हैंडपंप हैं, बोरिंग है इसलिए कुएं बावड़ियों से हमारा कोई सरोकार नहीं रहा। डॉ. क्षिप्रा माथुर ने जल आंदोलन से जुड़ी कई कहानियां श्रोता बिरादरी के साथ साझा करते हुए कहा कि सोलापुर जिले के एक गांव में 10 हजार किसानों ने मिलकर 37 किलोमीटर नदी को जिंदा किया और आज वहां 20 फीट पर पानी है। यह आंदोलन किसान और आमजन के सहयोग से संभव हुआ। ऐसे आंदोलन देशभर में चलाए जाएं तो जल समस्या दूर हो सकती है। जल आंदोलन में समाज की भूमिका के साथ सरकार की भी भूमिका जरूरी है। सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय, जल आयोग आदि आयोग तो बना लिए लेकिन वहां क्या हो रहा है इस पर किसी का ध्यान नहीं है। हमारे समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग पढ़ा लिखा है, अगर वह गांवों में जाकर वैज्ञानिक तरीके से खेती करे तो समाज में बड़ा बदलाव आएगा। उत्पादन अधिक होगा। कृषि फायदे में होगी। दुर्भाग्य यह है कि सबसे अधिक जल स्रोत गांवो में हैं लेकिन उसका लाभ शहरवासी अधिक उठा रहे हैं और गांव की महिलाओं को पानी के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है। जब देश आजाद हुआ उस समय हमारे यहां 20 लाख जल स्रोत थे। 75 वर्ष बाद इसकी संख्या में मात्र 4 लाख की वृद्धि हुई जबकि हमारी आबादी 4 गुना बढ़ी। यानी जल के प्रति हमारी उपेक्षा लगातार जारी है।
नदियों से जितना पानी नहीं सूखा उतना हमारा मन सूख गया
उन्होंने आगे कहा कि हमारे पुराणों, उपनिषदों में जल के महत्व को लेकर कई मंत्र, सूत्र, श्लोक आदि हैं। जल को सहेजने की परंपरागत परंपरा है, लेकिन आज हमने उसे तिरोहित कर दिया। अब हमारे सरोकार कम हो गए। नदियों से जितना पानी नहीं सूखा उतना हमारा मन सूख गया। जिनके पास रसूख है, संसाधन है, पैसा है, ताकत है उन्हें तो भरपूर पानी मिल रहा है, लेकिन जो इनसे वंचित हैं उसे पानी के लिए दर दर भटकना पड़ रहा है। इस मौके पर श्रोता बिरादरी द्वारा पूछे गए सवालों के संतोषजनक जवाब डॉ. शिप्रा माथुर ने दिए। कार्यक्रम में प्रारंभ में डॉ. क्षिप्रा माथुर ने स्वप्निल व्यास, कुणाल भंवर, किशन सोमानी और ग्रीष्मा त्रिवेदी के सहयोग से इंदौर प्रेस क्लब परिसर में नीम और बेलपत्र के पौधे लगाए। इस मौके पर अध्यक्ष रामेश्वर गुप्ता, पदमश्री भालू मोढे मुरली खंडेलवाल, अजिंक्य डगावकर, अर्चना श्रीवास्तव, कीर्ति राणा, नैनी शुक्ला, मनीषा गौर, वैशाली खरे, प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविंद तिवारी, मदन राने, डॉ. ओ पी जोशी, ब्रजभूषण चतुर्वेदी, प्रवीण जोशी, अरविंद पोरवाल, नूर मोहम्मद कुरेशी, शफी शफी शेख सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।