धारा 39(5)(ए) ईएसआई एक्ट के तहत जिस अवधि में ब्याज देय है, उसे कम नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईएसआई कोर्ट के पास कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 की धारा 39(5)(ए) के तहत देय ब्याज की अवधि को प्रतिबंधित करने का कोई अधिकार नहीं है। धारा 39(5)(ए) के तहत प्रावधान है कि यदि इस अधिनियम के तहत देय किसी अंशदान का भुगतान प्रधान नियोक्ता द्वारा उस तिथि को नहीं किया जाता है जिस दिन ऐसा अंशदान देय हो जाता है, तो वह बारह प्रतिशत की दर से प्रति वर्ष साधारण ब्याज का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा या ऐसी उच्च दर पर जो उसके वास्तविक भुगतान की तारीख तक विनियमों में निर्दिष्ट की जा सकती है।
इस मामले में, कर्मचारी राज्य बीमा (ESI) न्यायालय ने कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 की धारा 39(5)(a) के तहत लगाए जाने वाले ब्याज को केवल दो वर्षों के लिए प्रतिबंधित कर दिया। उक्त आदेश के खिलाफ अपील इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी। कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा दायर अपील में, उठाया गया मुद्दा यह था कि क्या ईएसआई अदालत ने ईएसआई अधिनियम की धारा 39(5)(ए) के तहत केवल दो साल की अवधि के लिए ब्याज लगाने पर रोक लगाई थी।

धारा 39(5) का हवाला देते हुए जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि अवधि को घटाकर दो साल करना किसी भी वैधानिक प्रावधान द्वारा समर्थित नहीं है। “उग्राह्य/देय ब्याज ब्याज का भुगतान करने के लिए एक वैधानिक दायित्व है। न तो प्राधिकरण और न ही न्यायालय के पास कोई अधिकार है कि वह या तो ब्याज को माफ कर दे और/या ब्याज को कम कर दे और/या उस अवधि को कम कर दे जिसके दौरान ब्याज देय है… पर ईएसआई अधिनियम की धारा 39(5)(ए) के अनुसार, ब्याज का भुगतान करने का दायित्व उस तिथि से है जिस पर ऐसा अंशदान देय हो गया है और इसके वास्तविक भुगतान की तिथि तक है।”

अदालत ने आगे कहा कि ईएसआई कोर्ट ने ईएसआई अधिनियम की धारा 39(5)(ए) के तहत ब्याज लगाने पर विचार करते हुए कर्मचारी राज्य बीमा निगम बनाम एचएमटी लिमिटेड (2008) 3 एससीसी 3 के फैसले पर भरोसा करके गलती की है। अदालत ने कहा कि उक्त निर्णय धारा 85 से संबंधित है- जहां शब्द “सकता है” का इस्तेमाल किया गया है। अदालत ने कहा कि ईएसआई अधिनियम की धारा 39(5)(ए) में प्रयुक्त शब्द “करेगा” है।

केस डिटेलः क्षेत्रीय निदेशक/रिकवरी ऑफिसर बनाम नितिनभाई वल्लभाई पंचासरा |  एसएलपी(सी) 16380/2022 | 17 नवंबर 2022 | जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एमएम सुंदरेश

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