इंदौर । देश की नई शिक्षा नीति बनाने में अहम योगदान देने वाले शिक्षाविद एवं विचारक मुकुल कानिटकर ने कहा है कि भारतीय शिक्षा को व्यापारी करण और सरकारी करण की नहीं बल्कि सामाजिकरण की जरूरत है । हमारे समाज में शिक्षा हमेशा समाज पर आधारित रही है । इसे शासन के अनुदान पर आधारित करने का कार्य अंग्रेजों ने किया था ।
वह जाल सभा ग्रह में अभ्यास मंडल के द्वारा आयोजित मासिक व्याख्यानमाला में शिक्षा सूत्र : शिक्षा के शाश्वत भारतीय सिद्धांत विषय पर संबोधित कर रहे थे । उन्होंने कहा कि कर्म वही है जो बंधन में ना बांधे और शिक्षा वही है जो मुक्त करें । विद्या हमेशा कुशल व्यक्ति तैयार करने का काम करती है । ऐसी शिक्षा हर किसी को मिलना चाहिए । जिस समय अंग्रेज हमारे देश में नहीं आए थे उस समय पर हमारे देश में शिक्षा का शुल्क नहीं लिया जाता था । जनजातीय समाज में आज भी कई परंपराएं ऐसी चल रही है जो पुरातन भारतीय इतिहास के गौरव का प्रतीक है । हमारे देश में जितना अनाज उत्पादित होता है उसमें से 60% अनाज बिकने के लिए बाजार में नहीं आता है । अर्थशास्त्री यही कहते हुए चिंतित हैं कि यह अनाज बाजार में नहीं आने के कारण उसका हमें जीडीपी में फायदा नहीं मिल रहा है ।
उन्होंने कहा कि वर्ष 1823 में भारत में यूरोप से 10 गुना ज्यादा लोग शिक्षित थे । अंग्रेजो के द्वारा वर्ष 1823 में 7 लाख गांव का सर्वे किया गया तो उसमें एक भी गांव ऐसा नहीं मिला जहां पर शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी । उस समय हमारे देश में 100% साक्षरता थी । आज जिस आरक्षण व्यवस्था की हम बात करते हैं उस आरक्षण में जिन वर्गों को लाभ दिया गया है उन वर्गों के शिक्षकों की संख्या आज के आरक्षण की व्यवस्था से ज्यादा थी । उन्होंने कहा कि उस समय मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र सहित बहुत सारा भाग मुंबई प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था । इस क्षेत्र में 1.13 लाख उच्च शिक्षा के संस्थान थे । इन संस्थानों में 26 विषय पढ़ाए जाते थे । आज हमारे देश में 76% साक्षरता है और उसमें भी जो व्यक्ति केवल अपना नाम लिख लेता है उसे हम साक्षर मानते हैं । इसके बावजूद हम भारत में शिक्षा को सर्वकालिक बनाने का श्रेय अंग्रेजों को देते हैं । भारतीय शिक्षण मंडल के द्वारा अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे होने के मौके पर शिक्षा की सार्वभौमिक व्यवस्था के लिए दृष्टि पत्र तैयार करने का काम शुरू किया गया । जब यह कार्य अंतिम चरण की तरफ बढ़ रहा था । उस समय पर यह विचार आया कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कभी भी दृष्टि पत्र शब्द नहीं आया है ऐसे में हमारे द्वारा शिक्षा सूत्र का निर्माण किया गया ।
कानिटकर ने कहा कि जब अंग्रेजों ने देखा कि भारत में गांव-गांव तक शिक्षा की व्यवस्था फैली हुई है और यह व्यवस्था समाज आधारित है तो इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए उनके द्वारा फैसला लिया गया । उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा शिक्षा व्यवस्था के लिए अनुदान देने की व्यवस्था शुरू की गई । उस समय कंपनी ने ₹1 लाख दान देने का फैसला लिया । उस समय मेकाले से पूछा गया कि यह पैसा किस तरह से वितरित किया जाए, तो उस समय पर हमारे देश में 13 लाख शिक्षण संस्थान चल रहे थे । ऐसे में इतनी कम राशि शिक्षा संस्थानों को वितरित कर पाना संभव नहीं था । इसके चलते हुए अंग्रेजों के द्वारा 1835 में यह कानून बनाया गया कि कोई भी कानून की मान्यता के बगैर शिक्षा नहीं दे सकेगा । यह कानून हमारे देश में आज भी लागू है ।
उन्होंने कहा कि आज कहा जा रहा है कि हम अपनी जीडीपी का 6% यदि शिक्षा को दें तो स्थिति सुधर जाएगी । मेरा कहना है कि पूर्व में समाज आधारित शिक्षा की व्यवस्था होती थी । जिसमें कि हर व्यक्ति अपनी कमाई का 10% अपने गुरुकुल को देता था । आज यदि देवी अहिल्या विश्वविद्यालय को उसके एलुमनाई अपनी कमाई का मात्र 1% भी दे दें तो इस विश्वविद्यालय के पास इतना फंड होगा जितना सरकार कभी भी नहीं दे सकेगी।उन्होंने कहा कि हमारे द्वारा तैयार किए गए शिक्षा सूत्र में उद्देश्य, प्रयोजन, अर्थ करी, संरचना और प्रविधि पर जोर दिया गया है।
हमारे यहां पर स्किल एजुकेशन की बात कही जाती है जो कि नौकरी दिलाने के लिए होती है, हम वोकेशनल शिक्षा की बात करते हैं जो कि आत्मनिर्भरता के लिए होती है । कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत अशोक कोठारी ने किया । कार्यक्रम की अध्यक्षता अभ्यास मंडल के अध्यक्ष रामेश्वर गुप्ता ने की । कार्यक्रम का संचालन माला सिंह ठाकुर ने किया । कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथि का परिचय पल्लवी अढाव ने दिया।अतिथि को स्मृति चिन्ह हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल वीएस कोकजे ने भेंट किए ।