भोपाल में हुए हादसे पर लेखक विजय मनोहर तिवारी की अखबारी कवरेज और कलेक्टर के आत्मज्ञान पर एक गौरतलब टिप्पणी-
भोपाल में शुक्रवार की सुबह अखबार आने के पहले मोबाइल पर बहुत विस्तार से पता चल चुका था कि छोटे तालाब में गणेश विसर्जन के समय नाव डूबने से 11 युवक मारे गए हैं। दिन में हादसे के वीडियो भी आ गए। शाम तक खबर का कोई कोना नहीं बचा। सब कुछ आ चुका था। इसलिए शनिवार के सुबह के अखबारों का इंतजार था कि वे क्या लाते हैं? यही आज के प्रिंट मीडिया की चुनौती है कि सोशल मीडिया पर सब कुछ उजागर होने के बाद उनके पास नया क्या है?
मैं कभी अखबारों के कवरेज पर टिप्पणी नहीं करता, क्योंकि वह ऐसा श्रमसाध्य मारामारी का काम है, जिसे एक आम पाठक बमुश्किल ही समझेगा। लेकिन आज भोपाल से प्रकाशित सारे अखबार देखने के बाद चाय का प्याला छोड़कर लिखने बैठा हूं। नवदुनिया के संपादक सुदेश गौड़ की विशेष टिप्पणी अपेक्षित थी, जो और कहीं नहीं है। पत्रिका ने भी मुख्य शीर्षक में “लापरवाही’ लिखा है। दैनिक भास्कर ने आधे पेज में जो फोटो छापा है, उसका वीडियो कल दिन भर देश भर में वायरल हो चुका है। मुख्य शीर्षक में शुक्रवार सुबह पांच बजे की बेहद बासी जानकारी है-“विघ्नहर्ता के विसर्जन में डूबी नाव, 11 की मौत।’
अक्सर कवरेज को लेकर तमाम आलोचनाओं के बावजूद मेरा अनुभव है कि भास्कर के मुकाबले देश के कम ही अखबार होंगे, जहां कन्टेंट पर काम करने वाली इतनी मेहनतकश टीम होगी। दैनिक भास्कर समूह के एमडी सुधीर अग्रवाल ने हर दो-तीन महीने में होने वाली देश भर के संपादकों की लंबी मीटिंग में हजारों बार दोहराया होगा कि ऐसे मौकों पर अखबार को पाठक की आवाज बनना चाहिए। खुलकर “भास्कर विचार’ या “भास्कर स्टैंड’ लिखना चाहिए। पाठक ही हमारी ताकत हैं। चेयरमैन स्वर्गीय रमेशचंद्र अग्रवाल अक्सर हमसे कहा करते थे कि भोपाल गैस हादसे में तमाम सरकारी दबावों के बावजूद अखबार ने हर कीमत पर भोपाल के पीड़ित नागरिकों की आवाज बनना मंजूर किया था और वही एक ऐसा निर्णायक मोड़ था, जहां से भास्कर की अश्वमेध यात्रा आरंभ हुई। वे कहते थे-“जो है सो भाई साब, पाठक ही हमारे मालिक हैं।’
श्राद्ध पक्ष के पहले दिन 11 घरों के बच्चे घर लौटकर नहीं आए। उनकी अंतिम यात्रा घर से निकली। एक ऐसे ह्दय विदारक हादसे के दिन दैनिक भास्कर के संपादकों ने भोपाल के दूरदृष्टा कलेक्टर का वह आत्मज्ञान खोज निकाला, जिसमें उन्होंने कुंडलिनी के सातवें चक्र के जागृत होने के बाद पांच दिन पहले ही कह दिया था-“हो सकती है बड़ी घटना।’ यह एक आयत थी, जो कलेक्टर पर उतरी थी और सिर्फ भास्कर के संपादक को इसका इलहाम हुआ। फ्रंट पेज के कुल कवरेज में एक तिहाई स्पेस में कलेक्टर के आदेश की प्रति ऐसे छापी है, जैसे गीता के व्याख्यान की कृष्ण की लिखी मूल प्रति कुरुक्षेत्र की खुदाई से निकाल लाए हों! वह “भास्कर विचार’ या “भास्कर स्टैंड’ सिरे से नदारद है, शुरू से नदारद है, जिसके बारे में एमडी ने हजारों बार संपादकों के कानों में पिघले हुए सीसे की तरह उतारा है। आज का अखबार कलेक्टर के बचाव में पूरी बेशर्मी से सामने है।
मेरा अनुभव है कि ऐसे मौकों पर कभी प्रबंधन की तरफ से कोई अंतिम फैसला नहीं आता। उन्हें सिर्फ घटना का संज्ञान होता है। वे रोजमर्रा के कवरेज में रुचि नहीं लेते। छपने के बाद निर्मम समीक्षा अवश्य करते हैं। 99 फीसदी कवरेज में संपादक अपने बुद्धि-विवेक और साफ नीयत (यदि हो तो) से निर्णय के लिए स्वतंत्र हैं। प्रबंधन उन पर भरोसा करता है। आज का कवरेज प्रबंधन अौर पाठकों के भरोसे को छोटे तालाब में ही विसर्जित करने वाला है। मैंने 25 साल मीडिया में बिताए हैं और अखबार हमेशा खरीदकर पढ़े हैं। यह पीड़ा एक ऐसे संवेदनशील पाठक की है, जो अखबार के अंदरुनी कामकाज के ढंग-ढर्रे की सारी शातिर बारीकियों से गुजरा है।
और अब दो बातें कलेक्टरों की दिव्य-दृष्टि पर। अंदर के पेज पर एक दूसरी खबर भी कलेक्टर प्रजाति की है। चराचर जगत में सबको ज्ञात है कि होशंगाबाद में नर्मदा के निर्दोष तटों पर अनादिकाल से कलेक्टर “रेत-साधना में रत’ रहे हैं ताकि उनके आकाओं को “अपार धन सिद्धि’ प्राप्त हो और वे भी इसी जीवन काल में भव-सागर से पार हों। अपने सियासी आकाओं के जुलूस, जलसों, शोभायात्राओं में भीड़ जुटाने की पूर्णकालिक मशीन बनते हुए भी हमने अपने समय के गुणवान कलेक्टरों को इसी धरा देखा है। देश के सबसे प्रतिष्ठित इम्तहान से पास होने के बाद और सिस्टम में खपने के बावजूद कुछ कर गुजरने की पीड़ा से भरे चंद अफसर ही बचते हैं, जिन्हें न तबादलों का डर होता और न मलाईदार विभागों की लालसा। वे ईश्वर को साक्षी मानकर सिर्फ अपना काम करते हैं। यह एक दुर्लभ प्रजाति है।
आपने देखा होगा कि यूपीएससी की परीक्षा में चयन होने के बाद साक्षात्कार में एक कन्या अपना आदर्श “मदर टेरेसा’ और युवक “स्वामी विवेकानंद’ को बताते हैं। इससे नीचे कोई बात नहीं करता। लेकिन एक बार सिस्टम में आने के बाद इनमें से ज्यादातर “रेत साधना’ या इसी तरह के वीरतापूर्ण कार्यों से जाने जाते हैं। हमारे शहरों और सरकारी दफ्तरों की चौतरफा बदहाली बताती है कि वे मामूली से बदलाव के लायक भी नहीं ठहरते। ज्यादातर सिर्फ मीटिंग करते हैं। आदेश जारी करते हैं। आकाओं से अपनी नजदीकी बढ़ाते हैं। मीडिया से रिश्ते गांठते हैं। कुलमिलाकर अपने ठाठबाट को “एंजॉय’ करते हैं। जब इतनी सिद्धियों में महारत हो जाए तो ग्राउंड पर जाकर रियलिटी चैक करने की क्या पड़ी है कि खटलापुरा घाट कहां है, वहां कितनी नावें हैं, कितनी तालाब में उतारने लायक हैं, कितनी भीड़ आती है, अलग-अलग आकार के कितने गणपति कितनी देर रात तक आते हैं और भीड़ को काबू करने के लिए कितने स्वयंसेवी या पुलिस की जरूरत होगी?
पांच दिन पहले ही अपनी महान् दिव्य-दृष्टि से जनता-जनार्दन को बता तो दिया है कि बड़ी घटना हो सकती है! अब क्या कलेक्टर के प्राण लोगे? शहर में 11 घरों के सपनों का जनाजा निकल रहा है। हे झुग्गियों के मसीहा, हे गुमटियों के पैगंबर, धन्य है आप इस धरा पर आए। आपके रहते गणपति भी किसी का विघ्न नहीं हर सकते। अफसर तो आपकी ही शोभायात्रा में साज-बाज लिए सबसे आगे दृष्टिगोचर हैं। संपादक भी जुलूस में कहीं सिक्के बटोर रहे हैं.
विजय मनोहर तिवारी की कलम से