फिर वही दर्द भरा उपन्यास ..! अब इबारतें बदल दीजिए….

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नई दिल्ली: दरअसल, निर्भया के साथ जो कुछ हुआ, उसे आप अपराध जगत की खबर की तरह चंद दिनों की अखबारी कतरन मान भूल नहीं सकते. आज भी निर्भया जैसे मामलों की खबरें आना हमारे समाज की कड़वी सच्चाई बन चुकी है. जब कभी किसी मासूम बच्ची के साथ जुल्म की दास्तान सामने आती है..सहसा शब्द निकलता है – कितनी और निर्भया..! देश की राजधानी दिल्ली में उस दिन 23 साल की युवती के न सिर्फ जिस्म को नोंचा गया, बल्कि लोहे की राड से उसकी आंतें इस कदर मरोड़ी गईं, कुचली गईं कि अस्पताल में भी जिंदगी और मौत के बीच निर्भया पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसती रही. अस्पताल में निर्भया के बिस्तर के सामने खडी मां को देखकर पानी के लिए कराहते हुए पुकारती रही …लेकिन इन्फेक्शन बढ़ने के डर से, मां आशा देवी अपनी बेटी को एक चम्मच भर पानी तक नहीं दे पाईं. क्या कहिएगा, कौन अभागा था, निर्भया या निर्भया की मां…? या फिर वो समाज जो निर्भया के कातिलों को पैदा करता है, उन्हें संरक्षण देता आया है ..!

यकीनन, अभागा समाज का वो तबका ही है, जो बेटियों को बराबरी का हक नहीं देता . पुरुष प्रधान समाज में बेटियों पर जुल्म को अपनी मर्दानगी का सबूत मानता है. हैरानी की बात है कि ऐसे छद्म पुरुषवाद के शिकार कई बड़े लोग, बड़े रसूखदार भी हैं, कई नेता और अभिनेता भी होंगे.

आज भी देश में किसी मासूम के साथ रेप और नृशंस हत्या का मामला सामने आता है तो इसी तबके के लोग समाज की राय को भटकाव के ऐसे दोराहे पर ला खड़ा कर देते हैं. जिसमें एक गलियारा पीड़िता के चाल-चलन पर जाता है तो दूसरा गलियारा उसकी परवरिश पर…मगर जिस गलियारे से पुरुष प्रधान समाज की प्रवृत्तियों की आवाजाही होती रहती है, समाज का वो गलियारा अनदेखा ही रहता है… बेटा घर न आए चलेगा, बेटियां शाम को घर चली आएं, बेटियां न खाएं तो चलेगा, क्योंकि पराया धन है, बेटों को मेवा खिलाना तो फर्ज है. ऐसी सोच आज से नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही है.

निर्भया के बाद भी ऐसे जघन्य अपराध थमे नहीं हैं. न उम्र का लिहाज है और न ही आंखों की शर्म.. निर्भया केस के बाद देश जिस तरह से उठा था, ऐसा लगा था कि अब हम महिलाओं और खासकर बच्चियों के लिए सुरक्षित देश बनाने के हम अवसर बना रहे हैं. जनता की मांग इतनी प्रबल थी कि सरकार कानून तक बदलने पर मजबूर हुई. काफी हद तक समाज के कायदे भी बदले…लेकिन गुजरते वक्त के साथ हुआ क्या…? देश के किसी न किसी कोने में पूरे साल कहीं न कहीं -” कितनी और निर्भया …”- हैडलाइन से खबरें लगती रही हैं. निर्भया केस के बाद उठा भावनाओं का ज्वार मानों अब थम सा गया है. दौड़ती-भागती हमारी जिंदगी दलदली भी हो चली है, जिसमें मानों हम डूबे जा रहे हैं…महिला विरुद्ध अपराधों की बढ़ती हलचल हमें उस रूप न तो दिखाई दे रही है और न ही सुनाई दे रही है…

देश में बढ़ती महिला विरूद्ध अपराधों के किस्से, अंतहीन उपन्यास की मानिंद आगे बढ़ते ही जा रहे हैं…कोई ठहराव नहीं, कोई छोर नहीं…कोई जवाब नहीं कि आखिर कब तक चलेगा ये सब ? न हम किरदार बदल पा रहे हैं और न ही ऐसी निर्भयाओं की किस्मत…रोज चेहरा बदलते अपराधी, मासूम बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक के यौन शोषण से बाज नहीं आ रहे. 2012 के बाद से ऐसे कई अपराध हुए. रोजनामचे में दर्ज मुकदमें और लिखी इबारतें महिला सुरक्षा के दावों पर सवाल खड़ी कर रही हैं .

रेप और नृशंस हत्याएं.

होना तो ये चाहिए कि निर्भया केस आखिरी होता…क्योंकि निर्भया मामले के बाद भावनाओं की सुनामी ऐसी थी कि मानों हर शख्स ये तय कर चुका हो कि बस ! अब बहुत हुआ…सरकार ने कानून बदल दिया, निर्भया फंड बन गया, निर्भया स्कवायड् बनने लगीं . निर्भया के गुनहगारों को फांसी की सजा के बाद तो ऐसे अपराध करने की सोच रखने वालों की रूह कांप जानी चाहिए थी, मगर क्या ऐसा पाया ?

2012 से हम 2021 में चले आए हैं. मगर निर्भया की तरह न जाने कितनी महिलाएं, युवतियां और मासूम बच्चियां अपराधों का दंश झेल रही हैं. अखबारों से लेकर ,डिजिटल मीडिया की उन खबरों को पढ़ते हैं तो फिर निर्भया के वक्त समाज की जागी संवेदनाएं फिर सोई नजर आती हैं. सिर्फ दिल्ली में हुई हाल की घटनाओं को ही लीजिए…

दिल्ली में महिला विरुद्ध गंभीर अपराध

दिल्ली में न सिर्फ बच्चियों के साथ रेप के मामले, बल्कि घरेलू हिंसा, दहेज के मामलों में इस साल बढ़ोतरी दर्ज की गई है. सितंबर 2021 को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि देश के 19 मेट्रोपोलिटन शहरों में दिल्ली में सबसे ज्यादा 9 हजार 782 मामले 2020 में दर्ज हुए हैं. इसके बाद मुंबई, बेंगलुरू, लखनऊ जैसे शहर आते हैं. वो राजधानी जहां 2012 निर्भया घटना के बाद महिलाओं के लिए सुरक्षित देश बनाने की भावनाओं का ज्वार उठा था. वहां 2021 में भी ऐसे मामले में जिसमें महिलाओं के प्रति क्रूरता और नृशंस हत्याएं कम नहीं हो रहीं तो सवाल उठाना ज़रूरी है कि क्या सबक लिया निर्भया मामले से ? आखिर क्या योजना है दिल्ली में महिलाओं, युवतियों और बच्चियों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए ?

निर्भया केस के बाद निर्भया फंड देकर तत्कालीन सरकारों ने महिला सुरक्षा की दिशा में अमूलचूल परिवर्तन का वादा किया था, लेकिन हकीकत ये है कि देश के कई राज्य आज तक भी निर्भया फंड का पूरा इस्तेमाल करने की नीति ही नहीं बना पाए हैं. पिछले साल यानी 2020 का सरकारी आंकड़ा है कि देश की राजधानी की पुलिस भी इस फंड की आधी रकम भी खर्च नहीं कर सकी है. सूचना के अधिकार में मिली जानकारी के मुताबिक 2020-21 में मिली आधी राशि वापस कर दी गई.

हकीकत ये है कि महिला विरूद्ध अपराधों के मामले में हमारी संवैधानिक व्यवस्थाएं और संस्थाएं अपराध को लेकर अपराधियों में डर पैदा नहीं कर पा रही हैं. पुलिस हो या समाज के जिम्मेदार लोग, ज्यादातर खुद ऐसे मामलों में महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजर आते हैं. महिलाओं के प्रति अपनी संस्कारिक पाठशाला और उसकी व्याख्या इस तरह साथ लिए घूमते हैं कि किसी भी मामले में उन्हें एक तरफा अपराध होता नजर नहीं आता. महिला विरुद्ध अपराधों के मामलों में कानून के बजाए समाज के स्थापित कायदों की नजर से ज्यादा देखे हैं.

सरकारें अपनी जगह उदासीन हैं ही, मगर हम भी महिला सुरक्षा के मुद्दे को सामाजिक स्वरूप नहीं दे पा रहे हैं. अक्सर सामने आती घटनाओं के बाद परिवारों में चिंता, फिक्र तो है मगर सरकार, पुलिस को कोसने के अलावा भी कुछ करने की जरूरत है.

निर्भया का दर्द भरा उपन्यास अंतहीन नहीं हो सकता… अब इसे खत्म होना होगा. क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी. इसीलिए संभालिए अपने समाज को, संभालिए अपनी नज़रों को, टूटते रिश्तों की डोर को, संभालिए उस नौजवान होती पीढ़ी को, जो घूरते हुए, पीछा करते हुए एक दिन किसी को दरिन्दगी का शिकार बनाने जा सकता है. संभालिए उस मर्द वाली सोच को, जो औरतों कभी पांव की जूती, तो कभी बाजार की भाव सूची समझती है. देश की आधी आबादी की आवाज सुनिए, उनका अनकहा अर्थ समझिए, हिन्दी की प्रख्यात कवियित्री डॉ.अनु सपन की पूरी रचना ज़रूर पढ़िए. जिनमें निर्भया जैसी सैंकड़ों बच्चियों, युवतियों और महिलाओं के जीवन की त्रासद व्यथा है, ऐसी घटनाओं से रोज रूबरू हो रही पीड़ित महिलाओं, युवतियों और बच्चियों की अभिव्यक्ति है .

इस तरह से मुझे आप मत देखिये, भाव सूची नहीं हूं मैं बाज़ार की

मेरी हर सांस में एक उपन्यास है, कोई क़तरन नहीं हूं मैं अख़बार की !

सिर्फ चेहरा ही सब देखते हैं यहां, नापते हैं कहां मन की गहराइयां

रूप रस के ये लोभी नहीं जानते, मन में बस्ती हैं मानस की चौपाइयां…

मूर्तियां पूजना मेरी फ़ितरत नहीं, मैं पुजारिन पसीने के किरदार की

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