श्रीमद्भगवद्गीता: प्रत्येक जीव श्रीकृष्ण का स्वरूप

धर्म-कर्म-आस्था

धर्म के साथ जिसने इंद्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।

तात्पर्य : निस्पृह होने का अर्थ है इंद्रियतृप्ति के लिए कुछ भी इच्छा न करना। दूसरे शब्दों में, कृष्णभावना भावित होने की इच्छा वास्तव में इच्छाशून्यता या निस्पृहता है। इस शरीर को मिथ्या ही आत्मा माने बिना तथा संसार की किसी वस्तु में कल्पित स्वामित्व रखे बिना श्रीकृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी यथार्थ स्थिति को जान लेना कृष्णभावनामृत की सिद्ध अवस्था है।

जो इस सिद्ध अवस्था में स्थित है, वह जानता है कि श्रीकृष्ण ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। अत: प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुष्टि के लिए किया जाना चाहिए। अर्जुन आत्म-तुष्टि के लिए युद्ध नहीं करना चाहिए था किंतु जब वह पूर्ण रूप से कृष्णभावना भावित हो गया तो उसने युद्ध किया, क्योंकि कृष्ण चाहते थे कि वह युद्ध करे।

इच्छाओं को नष्ट करने का कोई कृत्रिम प्रयास नहीं है। जीव कभी भी इच्छाशून्य या इंद्रियशून्य नहीं हो सकता, किंतु उसे अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता बदलनी होती है। प्रत्येक जीव श्रीकृष्ण का ही अंश स्वरूप है और जीव की शाश्वत स्थिति कभी न तो श्रीकृष्ण के तुल्य होती है

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