लखनऊः पिछले कई दिनों से एसपीजीआई में भर्ती उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का निधन हो गया. पूर्व मुख्यमंत्रियों में सख्त प्रशासन और नौकरशाही पर मजबूत पकड़ के लिए कल्याण सिंह की अलग पहचान है. उन्होंने सख्ती से नौकरशाहों से काम ही नहीं लिया बल्कि तमाम नौकरशाह उनके प्रशंसक भी रहे हैं. कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री रहते नकल विरोधी अध्यादेश लागू किया. कल्याण सिंह के कार्यकाल में नकल करते हुए पकड़े जाने वाले छात्रों को जेल भेजा गया. वहीं, नकल में मदद करने वाले शिक्षकों, अभिभावकों पर भी सख्त कार्रवाई हुई थी. इसी अध्यादेश ने कल्याण को सख्त प्रशासक के रूप में स्थापित किया. राजनीतिक विश्लेषक कल्याण सिंह के दोनों कार्यकाल को अलग-अलग रूपों में और उनकी अलग छवि को देखते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक सुरेश बहादुर सिंह कहते हैं कि कल्याण सिंह कुशल प्रशासक थे. वह कभी दबाव में झुकने वाले नहीं थे. हालांकि जब मायावती के साथ भाजपा का गठबंधन हुआ. तब मायावती ने सत्ता हस्तांतरण करने से मना कर दिया. मायावती को सत्ता से हटाने के लिए न चाहते हुए भी कल्याण सिंह को गठबंधन करना पड़ा था. वैसे तो कल्याण सिंह अपराधियों और माफियाओं के सख्त विरोधी थे लेकिन उन परिस्थितियों में उन्हें ऐसे लोगों को भी साथ लेना पड़ा था, जिन्हें वह पसंद नहीं करते थे. फिर भी अपनी सत्ता में किसी की दखल नहीं चाहते थे. सुरेश बहादुर सिंह का कहना है कि ब्यूरोक्रेसी में भी कल्याण सिंह की वैसे ही पकड़ थी. अधिकारियों में कल्याण के नाम की हनक थी. अच्छे राजनेता के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री कुशल प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाने में सफल रहे. सुरेश बहादुर कहते हैं कि कल्याण सिंह जमीनी नेता रहे और उनकी जनता के बीच अच्छी पकड़ भी रही है.
कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री बने. पहली बार 24 जून 1991 से छह दिसंबर 1992 तक और दूसरी बार 21 सितंबर 1997 से 12 नवम्बर 1999 तक मुख्यमंत्री रहे. दोनों कार्यकाल में बहुत अंतर था. पहली बार मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भाजपा कार्यकर्ताओं के ही नहीं बल्कि संपूर्ण हिंदू समाज के चहेते नेता के रूप में देखे गए. जानकार बताते हैं कि 1991 वाले मुख्यमंत्री कहते थे कि जिस काम को नियमों का हवाला देकर भाजपा कार्यकर्ताओं को वापस कर दिया गया हो. उसी तरह का काम किसी और का कर दिया गया तो ठीक नहीं होगा. ऐसे अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का यह अंदाज कार्यकर्ताओं को खूब भाता था. यही वजह थी कि वह भाजपा कार्यकर्ताओं के चहेते नेता के रूप में स्थापित हुए.
बाबरी विध्वंस में अपनी सरकार बर्खास्त कराकर संपूर्ण हिंदू समाज के लिए कट्टर हिंदुत्व वादी नेता के रूप में पहचान बनाई. दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर बहुत सा बदलाव दिखाई दिया. भाजपा कार्यकर्ताओं से उन्होंने दूरी बनाई. कुछ अपनों के अलावा अधिकारियों से नजदीकियां बढीं. जानकार तो यहां तक कहते हैं कि अधिकारियों के कहने पर वह फैसले लेने लगे. नेताओं की सुनना बहुत कम कर दिए. कुछ ऐसे घटनाक्रम भी घटे जिसकी वजह से कल्याण सिंह लोगों पर भरोसा करना कम कर दिए. रवैया इस तरह से बदलता गया कि धीरे-धीरे केंद्रीय नेतृत्व से उनकी अनबन हो चली. यही वजह थी कि 1999 में उन्हें पार्टी से बाहर होना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विजय शंकर पंकज कहते हैं कि मुख्यमंत्री रहते कल्याण सिंह अपने मंत्रियों से ज्यादा अधिकारियों पर भरोसा करते थे. अधिकारी पूरी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को दिया करते थे. पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बारे में भी कल्याण सिंह के करीबी अधिकारी सारी रिपोर्ट तैयार करके उन्हें सौंपते थे. किस नेता के घर पर कितनी बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो रहे हैं. कौन नेता ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलता है. जो नेता ज्यादा कार्यकर्ताओं, आम जनता से मिलता, उस पर कल्याण सिंह की नजर टेढ़ी हो जाती थी. अधिकारी भी चाहते थे कि कल्याण सिंह के अलावा कोई और नेता ताकतवर न हो. इससे उन्हें काम करने में आसानी होगी. कल्याण सिंह अधिकारियों से मनमानी नहीं करवा पाते थे. अधिकारियों का समूह जरूर उनसे अपने हिसाब से आदेश करवाने में सफल रहता था. भाजपा के भीतर की राजनीति को लेकर कल्याण जरूर अपने हिसाब से करने की कोशिश करते थे. हालांकि कल्याण सिंह के समग्र जीवन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह सख्त प्रशासक और अच्छे नेता रहे हैं.