क्या है व्यासपीठ, वेद व्यास जी का क्या है इससे संबंध

धर्म-कर्म-आस्था

वैदिक धर्म वेदों का अनुसरणीय धर्म है जिसे सनातन धर्म भी कहते हैं। वैदिक मतानुसार वेद ईश्वर की नि:श्वास हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही वेद भी प्रकट होते हैं और सृष्टि के प्रलय काल में वेद भगवान में लीन हो जाते हैं। इसी प्रकार यही क्रम बार-बार चलता आ रहा है अर्थात वेद नित्य हैं, उन्हें किसी ने बनाया अथवा रचा नहीं है। आरंभ में वेद एक ही था। द्वापर युग में महर्षि कृष्ण द्वैपायन जी ने वेद का विभाजन करके वेद को देव भाषा संस्कृत में चार भागों में लिपिबद्ध कर दिया और उनके क्रमश: नाम दे दिए ऋग्वेद, यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद। वेद का विभाजन करने के कारण महर्षि कृष्ण द्वैपायन जी को वेदव्यास कहा जाने लगा अर्थात वेद का विभाजन करने वाला। शास्त्र मत के अनुसार प्रत्येक द्वापर युग में व्यास के रूप में अवतरित होकर भगवान विष्णु वेदों के विभाजन करते हैं। अभी तक 28 बार वेदों का विभाजन किया गया है ।

वेदों का विभाजन क्यों किया
युग प्रभाव के कारण पहले एक वेद के सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण करने व स्मरण रखने में व्यक्ति सक्षम होते थे परंतु कलयुग के मनुष्यों के लिए सम्पूर्ण वेद का ज्ञान समझना तथा स्मरण रखना कठिन व जटिल जान कर, महर्षि वेद व्यास जी ने वेदों का विभाजन करके चार भाग किए और उन्हें सरल व सुगम बना दिया ताकि कलयुगी जीव उन्हें सरलता पूर्वक समझ सकें। महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास जी द्वारा रचित मुख्य ग्रंथ महाभारत के अलावा ब्रह्मसूत्र ,श्रीमद् भागवत व अठारह पुराण आदि उनकी पवित्र रचनाएं हैं।

एक दृष्टि शास्त्र पुराणों की परिभाषा पर
शास्त्र ऋषि-मुनियों द्वारा रचित पवित्र प्राचीन ग्रंथ हैं जिनमें मानवहित और अनुशासन के लिए अनेकों कर्तव्य बताए गए हैं। अनुचित कृत्यों को निषेध अर्थात त्यागने योग्य कहा गया है। यह शास्त्र की परिभाषा है।

पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित पवित्र ग्रंथ हैं। सनातन संस्कृति के प्राण हैं। इनमें ईश्वरीय गुणों, अवतारों की महिमा व जीवन सिद्धांतों का ज्ञान वर्णन है। पुराणों की संख्या 18 है। इन्हीं व्यास जी की ज्ञानमय पीठ को व्यासपीठ कहते हैं, जिसका वैदिक संस्कृति में श्रेष्ठ स्थान एवं महत्व है। पीठ का अर्थ होता है धर्म का वह सर्वश्रेष्ठ आसन, जिससे वेदों की वाणी, ज्ञान का सत्य स्वरूप प्रकट होता है। ये दिव्य पीठ आदि शंकराचार्य जी द्वारा बनाए गए चार मठों को सुशोभित करते हैं।

आर्यावर्त भारत भूमि पर चार मठों की स्थापना वेदों, शास्त्रों और पुराणों के संरक्षण स्थान के रूप में की गई थी जो इस प्रकार हैं :

(1) पूर्वी मठ गोवर्धन मठ (पुरी), (2) उत्तर मठ ज्योतिर्मठ (जोशीमठ), (3) पश्चिमी मठ द्वारिका पीठ (द्वारिका) तथा (4) दक्षिणी मठ शृंगेरी शारदा मठ (शृंगेरी)।

इन चारों दिव्य मठों के पीठाधीश्वरों के रूप में आदि शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए अपने सबसे योग्य महान चार शिष्यों को प्रतिनिधियों के रूप में आसीन किया था, जिन्हें जगदगुरू भी कहा जाता है। जगदगुरू उपाधि केवल भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त थी। उनके बाद यह उपाधि चारों मठों के पीठाधीश्वरों को मिली जो स्वयं में एक गौरव का विषय है ।

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