संस्कृति और समाज से दूर अस्तित्व के दोराहे पर खड़े किन्नर समुदाय का धर्म के मेले में ही राजतिलक हुआ। मंगलवार को शंखनाद के साथ किन्नर संन्यासी जैसे ही संगम में उतरे, मानो संस्कृति पर लिखे सदियों पुराने पन्ने पलट गए। गंगा के आंचल में वात्सल्य के इन पलों की साक्षी बनीं चारों दिशाएं, प्रकृति और ऋचाएं। युगों-युगों से उपेक्षित इन लोगों को धर्म ने मानो मां की तरह बाहें बढ़ाकर अपनी गोद में बिठा लिया।
सूर्य के उत्तरायण होते ही प्रयागराज में किन्नर अखाड़ा के स्नान के बाद संस्कृति का यह अध्याय काफी चर्चित रहा। देवी मंदिरों में श्रृंगार से लेकर बधाई गीतों में किन्नर रहे हैं। हालांकि, सालों पहले इनकी भूमिका तुलसीदास जी ने देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहि सकल त्रिवेणी के जरिये स्पष्ट कर ही दी थी। फिर भी चर्चा में उलझे इनके अधिकारों पर संस्कृति और अध्यात्म के मेले में मुहर लगी। सुबह छह बजे से अखाड़ों के आने का क्रम शुरू हुआ।
नागाओं के साथ संत संन्यासियों का रेला बारी-बारी से तट पर उतरा और मंत्रोच्चारण के साथ गंगास्नान किया। इसके बाद जूना अखाड़े के साथ माईबाड़ा फिर अपने निशान और पहचान के साथ किन्नर अखाड़ा संगम की ओर चला। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ रहे थे, गुजरते हर भक्त के कदम उन्हें देखने को थम रहे थे। इन ऐतिहासिक क्षणों को आंखों के साथ दिल में कैद करने के लिए सूरज और ठिठुरन के बीच करीब पांच घंटे के मुकाबले के बाद आस्था जीतती नजर आई।
पहली बार कुंभ स्नान कर रहे इस अखाड़े को नजर में उतारने के लिए भी उतने ही श्रद्धालु संगम किनारे मौजूद रहे। लाल साड़ी में किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के साथ भवानी और गुरुमाता के साथ श्रद्धालुओं का बड़ा हुजूम तट किनारे तक पहुंचा। गंगा में उतरते ही बम-बम भोले.जय-जय शिव.ध्वनि के साथ मुख्यधारा के लिए सालों तक चले संघर्ष ने डुबकी लगाई।
आखिर धर्म की लहरों के बीच एक उपेक्षित समाज का तिलक वंदन जो हुआ। गंगा भी कुछ ऊपर तैरती लगीं और उनकी चरण रज के जरिये यह पल कुंभ के इतिहास में कैद हुआ। पहले शाही स्नान में कई प्रदेशों के किन्नर शामिल हुए।
हम सनातनी बच्चे हैं हम सनातन धर्म के हैं, उपदेवता हैं। हमने सालों संघर्ष झेला है। आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि स्वयं इस धर्म मेले ने हमें अपनाया। संगम ने गोद में खिलाया। आज जितने भी किन्नर संन्यासियों ने यहां स्नान किया है, उनकी ओर से मैं पूरे मानव समाज के हित की कामना और प्रयास करती हूं। यह सनातन धर्म की ही महिमा हो सकती है कि जहां सालों तक संस्कृति और समाज से अलग रखा, वहीं सबसे बड़े संस्कृति के मेले ने बांहें फैलाकर हमारा स्वागत किया।