मकर संक्रांति पर अखाड़ों ने लगाई आस्था की डुबकी, तस्वीरों में देखें अर्धकुम्भ में शाही स्नान की भव्यता

पहले शाही स्नान के साथ अर्धकुम्भ का आगाज  

स्वर्ग का दरवाजा खोलता है पहला शाही स्नान,  49 दिनों में 15 करोड़ से अधिक श्रद्धालु जुटेंगे  गंगा नदी किनारे 45 किलोमीटर में बसाया छोटा शहर  पूरी भव्यता के साथ शाही स्नान के लिए रवाना हुए अखाड़े प्रयागराज में पहले शाही स्नान के साथ ही अर्ध कुम्भ मेले का आगाज हो गया है। मंगलवार को मेले में सबसे पहले साधु-संतों का शाही जुलूस निकाला गया। इसके बाद शाही स्नान की परंपरा शुरू हो गई। इस धार्मिक-आध्यामिक-सांस्कृतिक मेले में अगले 47 दिनों तक देश-विदेश के 15 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालु जुटेंगे। शात्रों के अनुसार पहला शाही स्नान स्वर्ग का दरवाजा खोलता है, जिसकी शुरुआत मंगलवार सुबह साढ़े पांच बजे हो चुकी है और यह शाम साढ़े चार बजे तक चलेगा। श्रद्धालुओं के लिए गंगा नदी के किनारे एक छोटा शहर बसाया गया है, जो 45 किलोमीटर तक फैला हुआ है। भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए हैं। प्रयागराज एक ऐसी जगह हैं जहां गंगा और यमुना नदी का संगम होता है। ये दोनों नदियां पूजनीय हैं। माना जाता है संगम पर लगने वाला अर्ध कुम्भ आस्‍था का महासागर है जो अंधेरे से प्रकाश की ओर, असफलता से सफलता की ओर ले जाता है। यहां बुद्धिमत्ता के प्रतीक सूर्य का उदय होता है। अर्ध कुम्भ मेला 4 मार्च महाशिवरात्रि तक चलेगा। आखिरी शाही स्नान 4 मार्च को होगा और इसी दिन अर्धकुम्भ का समापन हो जाएगा।ऐसा रहा कड़कड़ती ठंड में शाही स्नान का आलम शाही स्नान के लिए सबसे पहले संगम तट पर श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी का जुलूस पहुंचा। अखाड़े के देव भगवान कपिल देव तथा नागा सन्यासियों ने अखाड़े की अगुआई की। महानिर्वाणी अखाड़े के बाद श्री पंचायती अटल अखाड़े के संत, आचार्य और महामंडलेश्वर संगम तट पर शाही अंदाज में पहुंचे और तय समय के मुताबिक पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के संतों ने सबसे पहले संगम तट पर डुबकी लगाई। प्रयागराज में संगम तट पर दूधिया रोशनी में नहाए पीपों के पुल की आभा देखते ही बन रही थी। संगम के वे घाट खाली करा दिए, जहां संतों का शाही स्नान होना है। प्रथम शाही स्नान के लिए जब श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े के श्री महंत, महंत, आचार्य, रथ, घोड़े, छत्र, चंवर लिए अपनी पूरी भव्यता के साथ संगम की ओर रवाना हुए, तो उनके दर्शन के लिए लोग उत्साहित हो गए।क्यों कहा जाता है कुंभ कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में गिरी थीं। जहां जब ये बूंदें गिरी थी उस स्थान पर तब कुंभ का आयोजन होता है। उन तीन नदियों के नाम है गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा।इसलिए आयोजित होता है कुंभ मेलाशास्त्रों के अनुसार एक बार देवताओं और दानवों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया। मदरांचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र को मथा गया। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले। अंत में भगवान धनवंतरि अमृत का घड़ा लेकर प्रकट हुए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं और दैत्यों में उसे पाने के लिए लड़ाई छिड़ गई। ये युद्ध लगातार 12 दिन तक चलता रहा। इस लड़ाई के दौरान पृथ्वी के चार स्थान प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक पर कलश से अमृत की बूंदें गिरी। लड़ाई शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर छल से देवताओं को अमृत पिला दिया। अमृत पीकर देवताओं ने दैत्यों को मार भगाया। काल गणना के आधार पर देवताओं का एक दिन धरती के एक साल के बराबर होता है। इस कारण हर 12 साल में इन चारों जगहों पर महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।इतना है कुंभ मेले का इतिहासविद्वानों का मानना है कि कुंभ मेले की परंपरा बहुत पुरानी है, लेकिन उसे व्यवस्थित रूप देने का श्रेय आदि शंकराचार्य को जाता है। जिस तरह उन्होंने चार मुख्य तीर्थों पर चार पीठ स्थापित किए, उसी तरह चार तीर्थ स्थानों पर कुंभ मेले में साधुओं की भागीदारी भी सुनिश्चित की। आज भी कुंभ मेलों में शंकराचार्य मठ से संबद्ध साधु-संत अपने शिष्यों सहित शामिल होते हैं। शैवपुराण की ईश्वर संहिता और आगम तंत्र से संबद्ध सांदीपनि मुनि चरित्र स्तोत्र के अनुसार, महर्षि सांदीपनि काशी में रहते थे। एक बार प्रभास क्षेत्र से लौटते हुए वे उज्जैन आए। उस दौरान यहां कुंभ मेले का समय था, लेकिन उज्जैन में भयंकर अकाल के कारण साधु-संत बहुत परेशान थे। तब महर्षि सांदीपनि ने तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया, जिससे अकाल समाप्त हो गया। भगवान शिव ने महर्षि सांदीपनि से इसी स्थान पर रहकर विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए कहा। महर्षि सांदीपनि ने ऐसा ही किया। आज भी उज्जैन में महर्षि सांदीपनि का आश्रम स्थित है।क्या है अर्धकुंभ अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ और अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग, नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। उज्जैन और हरिद्वार में मनाए जानें वाले कुंभ पर्व में और प्रयागराज व नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में तीन सालों का अंतर होता है। 2013 का कुम्भ प्रयागराज में हुआ था इसके बाद 2019 में भी यहां अर्धकुम्भ मेले का आयोजन हुआ। यहां माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है।

भव्य रोशनी में पूरा मेला
श्रद्धालु स्नान करते हुए
नागा संतो ने डुबकी लगाई
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