प्रवासी मज़दूर या मजबूरियाँ प्रवासी

Uncategorized सम्पादकीय

प्रवासी मज़दूर या मजबूरियाँ प्रवासी

✍🏻 डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

चिलचिलाती धूप और तेज़ पड़ती गर्मी, कराहती धरती और उस पर चलते भारत के नवनिर्माता के पाँव में होते छाले, नंगे पैर अपनी मजबूरियों की गठरी सिर पर बाँधे, हाथ में अपने भविष्य की रोटी यानी अपने बच्चों और पत्नी या परिवार को साथ लेकर निकलने वाला, वो एक कहानी के कथानक-सा अडिग मीलों दूर अपने गाँव की तरफ़ जाता, जिसे न आज की भूख की चिंता है न ही प्यास की, मिल जाए कुछ खाने-पीने को बस उसे भी नसीब मानकर भारत की सड़कों को नापता, वो आधुनिक भारत का निर्माता मजबूर आज केवल जान बचाकर जीने की आस लिए अपने पैरों के छालों को भी क़ुर्बानी मानता, न जाने क्यों इतना मजबूर हो चला है जिसे कल की ज़रा भी फ़िक्र नहीं, वो आज को काट रहा और व्यवस्था के मुँह पर करारा तमाचा मारता हुआ, आज कोरोना के संकट काल में भी हताश नहीं है। वह जानता भी नहीं है कि उसकी ताक़त ही इस भारत को भारत बना रही है, बस फिर भी अपने दर्द को रोज़ अपने फटे कपड़े और नग्न तन से छानता चल रहा है। हाँ साहब! वो पलायन करता मज़दूर आज आज़ादी के 7 दशक बाद भी वैसा का वैसा ही है जिसके लिए हज़ारों करोड़ रुपया सात दशकों में नीति निर्धारकों को तनख्वाह के रूप में मिला है। साहब आज भारत सचमुच नंगे पाँव अपने घर लौट रहा हैं।

सच तो यह भी है कि इंडिया तो हवाई जहाज से अपने घर पहुँच गया पर भारत आज भी नंगे पाँव अपने घर जाने की जद्दोहद में ही सड़कों पर पैदल चल रहा है। भारत की इस दुर्दशा के लिए न तात्कालिक शासकीय व्यवस्था को दोषमुक्त कह सकते है न ही बीती कई सरकारों को दोषमुक्त मान सकते है जिन्होंने आज तक उस मजबूर के लिए नीतियाँ बनाने के नाम पर तनख्वाह और पैसा तो कमाया पर आजतक उसके लिए दो जून की रोटी का भी प्रबंधन कर पाए।
हश्र की परिणीति आज जब व्यवस्था को मुँह चिड़ा रही है तो ऐसे समय में भी देश की राजनीति को केवल अपना उल्लू साधना दिखाई दे रहा है, आज भारत में न तो सत्ता मज़बूत है न ही विपक्ष।
ज़िम्मेदारी के नाम पर कलंक का काला दाग़ तो सन 1979 से भी जारी ही है, जब से प्रवासी मज़दूरों की गणना के लिए क़ानून तो बनाया गया किन्तु आज तक उसे धरातलीय नहीं कर पाए, ये सरकारी तंत्र को यह भी नहीं मालूम है कि कितने मज़दूर आज सड़कों पर पैदल चल रहें है। जबकि उस शहर ने भी उन मज़दूरों के खाने-रहने का प्रबन्ध नहीं किया जिसके नवनिर्माण के लिए वो मज़दूर अपने ख़ून-पसीने को रेत और मिट्टी में मिलाकर अट्टालिकाओं को बना रहे थे, सड़कों को धार लगा रहे थे, पुल और इमारतों को नया रूप दे रहे थे।
भारत में लॉकडाउन शुरू होने के हफ्तों बाद प्रवासी मज़दूर घर वापस लौटने लगे हैं। न तो उन्हें जहाँ काम कर रहे उन प्रदेशों ने सहारा दिया न ही उनके अपने प्रदेशों में उनके भविष्य की कोई योजना है।
कोरोना महामारी के फैलाव और लॉकडाउन की लंबी अवधियों के बीच भारत में श्रमिकों के हालात और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान और श्रम रोज़गार से जुड़ी राजनीतिक आर्थिकी के कुछ अनछुए और अनदेखे अध्याय भी खुल गए हैं।
पहली बार श्रम योद्धाओं की मुश्किलें ही नहीं, राज्यवार उससे जुड़ी पेचीदगियाँ भी खुलकर दिखी हैं।
राज्यों के पास उन्हें लाने-ले जाने या उनके काम की कोई ठोस और कारगर योजना नहीं है जो मज़दूरों का विश्वास जीत सकें। इसी के साथ अपने प्रदेश की समस्या न समझते हुए उन्हें पलायन करने पर मजबूर करने वाली सरकारी मशीनरी भी ढोल का पोल ही साबित हुई हैं।
एक साथ बड़े पैमाने पर प्रवासी मज़दूरों का अपने घरों को लौटने के असाधारण फ़ैसले के जवाब में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के पास कोई ठोस कार्रवाई या राहत प्लान नहीं है जो, समय रहते हालात सामान्य कर पाता।

दिल्ली, गुजरात, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्य भले ही विकास के कई पैमानों पर अव्वल राज्यों में आते हों लेकिन अपने अपने घरों को बेतहाशा लौटते मज़दूरों को रोके रखने के उपाय करने में वे भी पीछे ही रहे। हालांकि ये भी एक सच्चाई है कि भारत में प्रवासी मज़दूरों की स्थिति विभिन्न राज्यों के असमान विकास के साथ जुड़ी हुई है। सच्चाई ये भी है कि सरकारें सहानुभूति दिखा सकती हैं लेकिन खर्च वही कर सकती हैं जो उनके पास है।
आज मजदूरों के अनवरत पलायन के लिए जितनी दोषी राज्य व केंद्र सरकारें है उतना ही दोषी यह मानवता का स्वांग रचने वाला समाज भी है जिसे श्रम शिविर को यातना देना तो आता है पर भूख से बिलखते बच्चें या कामगार को पानी पिलाना तक नहीं आता। यदि वे ठेकेदार जो इन मज़दूरों को गाँवों से तो बहला-फुसलाकर, काम देने के बहाने ले तो जाते हैं पर जब असल खिलाने की बारी आई तब मुँह छिपाते हुए सरकारी तंत्र को भी दोषी ठहराने ने कोई कसर नहीं छोड़ते ।
ज़िम्मेदारी की टूटती उम्मीद यह है कि जो मज़दूर आज पलायन कर रहे हैं वो उस शहर के प्रति मन में कटु अनुभव लेकर घर जा रहे हैं और आगे भी अपने अनुभवों के आधार पर गाँव से शहर की ओर जाने वाली पौध को रोकेंगे।
यह सच है कि गाँव से शहर आने वाले लोग देखने को तरस जाते हैं, और वैसे लोग जो करुणा से भरा हॄदय रखते हैं और अपनेपन का मलहम भी रखते हैं और उसे लगाना भी जानते हैं।
वर्तमान केंद्र सरकार ने विदेशों में बसे भारतीयों को तो लाने के लिए हवाई जहाज चला दिए पर सड़क पर पैदल चल रहे भारत के श्रामवीरों की सुध लेना भी मुनासिब नहीं समझा, सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि ये मज़दूर हैं।
साहब से श्रम वीर मज़दूर हैं मजबूर नहीं, स्वावलंबन और आत्मनिर्भता का प्रधानमंत्री का प्रवचन तब बौना साबित हो जाता है जब भारत का कर्णधार नंगे पाँव सड़कें नापता हुआ घर जाता हैं।

माफ़ करना साहब, यह शाब्दिक जुगाली करने का समय नहीं है, भाषणों और घोषणाओं से पेट नहीं भरता। पाँव के छाले इस बात की गवाही दे रहें है कि इंडिया हवाई जहाज में वंदे भारत करके इठला रहा है और भारत आज भी सड़कों पर चलने को मजबूर है। नीति के निर्धारकों ने कोरोना काल को भ्रष्टाचार करने का अवसर तो बना लिया पर असल भारत और श्रमवीरों को मौत के अंगारों पर चलने के लिए विवश करने के अपराध से मुक्त नहीं हो पाएँगे।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं स्तंभकार
इन्दौर, मध्यप्रदेश
www.arpanjain.com
[लेखक स्तंभकार एवं हिन्दी भाषा के प्रचारक हैं]

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *