नारायणपुर। माथे का सिंदूर, गले का मंगल सूत्र, हाथ की मेंहदी और पांव का महावर सब कुछ उजड़ गया, सजना-संवरना सब कुछ भूल गई। लेकिन वो एक बात नहीं भूली लोगों के जूते-चप्पल संवारना। ये दास्तान उस पत्नी की है, जिसके पति का लगभग 22-23 साल पहले निधन हो गया, जिसके कारण वह और गरीब हो गयी। कम उम्र और उस दौर के छोटे गांव नारायणपुर में दो बच्चों की परिवरिश करना मानो पहाड़ ढ़ोने जैसा था। लेकिन वह नाराज नहीं हुई और न किसी से खफा। जो कि मोची का काम पति की मौत के बाद से 21 सालों से करती आ रही है। कुंतीबाई ने लॉकडाउन के चलते मिली छूट में आज अपनी मोची की दुकान खोली थी। एक माह बाद आज खोली दुकान से दो घंटे में ही जूता-चप्पल मरम्मत कर 100 रूपए कमाने की बात भी मेरे संबाददाता को बतायी। कोरोना और लॉकडाउन के चलते कुंती की भी दुकान लगभग एक माह से ज्यादा वक्त से बंद थी। उसे अब नकदी की भी समस्या होने लगी थी। शासन के निर्णय से यह राह आसान हुई।
उसने पूछा साहब क्या जूते व चम्पल से भी ये बीमारी होती है। हमारी दुकान भी बंद कर दी। मैं समझ गया कि कोरोना वायरस संक्रमण फैलने की बात कर रही है। मैंने कहा हां फैल सकता है, अगर सावधानी नहीं बरती जायें। मैने बातचीत में पूछा लिया कि सरकार ने गरीबों के लिए दो माह का मुफ्त राशन दिया है ? मुझे भी 70 किलो चावल मिला है। जरूरत पड़ने पर और देने की बात भी कही है। अलग से दाल-चावल, तेल, मसाले, गुड़, आलू-प्याज भी मिले हैं, झूठ नहीं बोलती …साहब। कुछ जरूरत के लिए नकदी भी चाहिए की बात की। अब दुकान खुल गई है। नकदी की भी समस्या दूर हो जायेगी। वो जूते के काम में लग गई ।
कुंतीबाई कहती गई कि उसका पति जूते-चप्पल की मरम्मत बहुत बारीकी से और जूतों की पालिश चमकदार करता था। पता नहीं चलता था कि इनकी सिलाई हुई या मरम्मत। कुछ जूते भी बना लिया करता था, जिसे वह हॉट-बाजार में बेच दिया करता था। शौकीन था पीने का ,पर जल्दी चला गया, गहरी, लंबी सांसों को छोड़ते हुए कहा। पालिश का काम करते वो बोलती रही और मैं सुनता रहा। पति का अफसोस कुछ सालों तक रहा जब कोई महिला पांव से चम्पल उतार कर सुधरवाने या पालिश करने देती तो उसके पांव में लगे महावर से पुरानी यादें आ जाती थी। उसकी दर्द भरी दास्तान को मैं महसूस कर सकता था। वह कहना चाह रही थी कि साहब मुझे भी साज-श्रृंगार करना, महावर, मेंहदी लगाने का बहुत शौक था, लेकिन ऊपर वाले को यह ज्यादा दिन मंजूर नही था ।एक शहर बनता है, उसके शहरवासियों से, उसकी जनता से। अगर हम नहीं सुधर सकते तो शहर कैसे सुधरेगा। जो लोग कई वर्श पहले शहर छोड़कर गए हैं वो कभी आते है तो उनके मुंह से यही निकलता है कि ये शहर वैसा का वैसा ही है। लेकिन यह धारणा नारायणपुर शहर के लिए सही नहीं। कुंतीबाई इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कि उसने मास्क लगाकर अपनी मोची की दुकान खोली।