
भोपाल। आदिवासियों का बड़ा हितैषी कौन? ये सवाल आजकल मध्य प्रदेश में चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि सत्ताधारी दल बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस पार्टी दोनों ही खुद को आदिवासियों के सबसे बड़े पैरोकार सबसे बड़े रहनुमा के तौर पर साबित करने में लगी हैं. संघ और बीजेपी ने आदिवासियों को जोड़ने के लिए माइक्रो मैनेजमेंट का सहारा लिया है तो कांग्रेस अब युवा आदिवासियों को पार्टी से जोड़ने के लिए मिनी माइक्रो मैनेजमेंट की बात कर रही है.दरअसल मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए आदिवासी वोट बैंक को साधना ज़रूरी है क्योंकि 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है और जिधर इनका झुकाव होता है सरकार उसी पार्टी की बनती है.
क्यों आदिवासियों को लुभाना चाहती हैं बीजेपी, कांग्रेस?
मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में आदिवासियों की बड़ी भूमिका को देखते हुए ही बीजेपी का पूरा ज़ोर उन्हें साधने पर है. 2018 के चुनाव में आदिवासी वोटरों का छिटकना बीजेपी की हार का बड़ा कारण था . उससे सबक लेते हुए बीजेपी अब कोई गलती करने के मूड में नहीं है. आदिवासी महासम्मेलन हो या फिर आदिवासी नेता टंट्या मामा की मूर्ति का अनावरण या पेसा कानून लागू करने का ऐलान हो जिसके तहत आदिवासियों को स्थानीय संसाधन जैसे ज़मीन, फॉरेस्ट प्रोडक्ट्स , खनिज संपदा की सुरक्षा और संरक्षण का ज़्यादा अधिकार मिलेगा. बीजेपी की शिवराज सिंह सरकार आदिवासियों को तमाम तरह की छूट और सुविधाओं का लगातार ऐलान कर रही है ताकि बीजेपी से उसकी थोड़ी बहुत जो भी नाराज़गी है वो दूर हो सके.

CM शिवराज सिंह चौहान का कांग्रेस पर टंट्या को भूलने का आरोप
बीजेपी ये भी दिखाने की कोशिश में है कि कांग्रेस ने आदिवासियों के हित में कोई काम नहीं किया. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस को इतने सालों तक टंट्या मामा की याद नहीं आई. दूसरी ओर कांग्रेस आरोप लगाती है कि बीजेपी ने आदिवासियों को हमेशा नज़रंदाज़ किया है, बिरसा मुंडा हो, टंट्या भील हों या रघुनाथ शाह हो ,आदिवासियों के लिए जल, जंगल, ज़मीन की चुनौती बनी हुई है.

जयस के प्रमुख डॉ हीरालाल अलावा का कहना है कि आदिवासियों को जोड़ने के लिए बीजेपी और संघ के माइक्रो मैनेजमेंट का जवाब देने के लिए हमने मिनी माइक्रोमैनेजमेंट का प्लान तैयार किया है , आदिवासी विधायक और पूर्व मंत्री ओमकार सिंह मरकाम का कहना है कि आदिवासियों के वास्तविक विकास के लिए हमें काम करना है. युवा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष विक्रांत भूरिया का कहना है कि युवा कांग्रेस आदिवासी वर्ग के बीच जाकर आदिवासी युवाओं को कांग्रेस के साथ जोड़ रही है. हम कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए मंडल और बूथ स्तर पर काम कर रहे हैं. हर एक बूथ पर 5 युवाओं को तैनात किया जा रहा है. हमारा मिशन 2023 चुनाव है, जिसमें कामयाबी मिलने की पूरी उम्मीद है. कांग्रेस नेता भले ही आदिवासियों को लेकर बड़ी बड़ी बातें करें लेकिन सच्चाई ये है कि शनिवार 4 दिसंबर को जब जननायक टंट्या मामा के लिए उसने श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया तो उसमें केवल 10 लोग ही जुटे जो दिखाता है कि उनके कार्यकर्ता आदिवासियों को लेकर कितने गंभीर हैं. ऐसे में कांग्रेस कैसे बीजेपी के माइक्रो मैनेजमेंट प्लान का तोड़ निकालेगी?
सरकार बनाने में कैसे निर्णायक है आदिवासी वोट?
आइए समझते हैं आखिर मध्य प्रदेश में आदिवासी वोट क्यों इतना मायने रखता है. प्रदेश में आदिवासियों की संख्या करीब 1 करोड़ 53 लाख है यानी कुल आबादी के 21% से ज़्यादा. 20 जिलों के 89 विकासखंड आदिवासी बहुल हैं, विधानसभा की कुल 230 में से 47 सीटें और लोकसभा की 6 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. 47 विधानसभा क्षेत्रों के अलावा करीब 35 सीटें ऐसी हैं, जिनमें आदिवासी मतदाताओं की भूमिका निर्णायक है. 2003 के चुनाव की बात करें तो उस समय आदिवासियों के लिए आरक्षित 41 में से 37 सीटें बीजेपी के खाते में गईं थी जबकि कांग्रेस को केवल 2 सीटें मिली थीं. 2008 के चुनाव में आदिवासियो के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 47 कर दी गई, बीजेपी को इनमें से 29 और कांग्रेस को 17 सीटें मिलीं.2013 में बीजेपी ने 47 में से 31 सीटें झटकीं जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें आईं. 2018 में तस्वीर बदल गई जब कांग्रेस को 47 में से 30 जबकि बीजेपी को 16 सीटें मिल पाईं. 2018 में कांग्रेस ने 15 साल बाद मध्य प्रदेश में सरकार भी बनाई थी. तो आप समझ सकते हैं क्यों बीजेपी हो या कांग्रेस, आदिवासी समाज को साधने में ज़ोर लगाती हैं.