जानिए यज्ञोपवीत धारण करने का मूल कारण क्या है?

यज्ञोपवित या जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। यदि कोई भी पुरुष या स्त्री धर्म के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो वह यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं। परब्रह्म उपनिषद में बताया गया है कि असल में जनेऊ धारण क्यों की जाती है। बाहर से तो कई लोग जनेऊ धारण करते हैं परंतु जनेऊ हमें क्या याद दिलाती हैं, यह कम ही लोग जानते हैं।

आओ जानते हैं विस्तार से..

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहा जाता है। वह लड़का जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकता है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।

आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार. गृ.सू. 2.2.11।

तीन धागे:

जनेऊ की तीन लड़े होती है जो कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप माने जाते हैं। इन तीनों शक्तियों के माध्यम से हमें सत, रज और तम को समझकर अपने मन को वश में रखते हुए जीवन यापन करना है, जनेऊ हमें यहि याद दिलाती हैं।

एक शक्ति ब्रह्म:-

जनेऊ के तीनों धागे एक ही जगह पर आकर मिलते हैं अर्थात वह एक ही धागा है जो तीन बार लपेटा गया है जो यह दर्शाता है कि ब्रह्म एक ही है, अलग-अलग नहीं। अर्थात जो तीन अलग रूपों में दिखाई देते हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश वे एक ही शक्ति हैं।

एक तत्व:-

यज्ञोपवीत के प्रारम्भ से अंत तक विभिन्न तत्वों के सम्मिलन में मूल तत्व एक ही है। जिस प्रकार मिट्टी से बने हुए घड़े या अन्य मिट्टी के पात्र अलग अलग दिखाई देते हैं परंतु उसमें सत्य केवल मिट्टी ही है। इसी प्रकार ब्रह्म निर्मित सब कुछ ब्रह्म ही है उससे प्रथक कोई और सत्ता नहीं है, और यज्ञोपवित हमें बताती है कि अस्तु सोहम वही ब्रह्म मैं हूँ, ऐसा भाव सतत करना ही यज्ञोपवीत धारण करने का मकसद है।

पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए:-

पुराणों के अनुसार सभी सज्जनों, देवर्षि और मुनियों के लिए मुक्ति, ब्रह्म और ब्राह्मणत्व एक समान हैं। यज्ञोपवीत यही सूचना देने वाला ब्रह्मरूपी सूत्र है। अतः हमें ब्रह्म भाव से युक्त होकर जनेऊ धारण करना चाहिए। जो इस भाव से सूत्र धारण करता है वही मुक्ति का अधिकारी बनता है। जो इस गूढ़ ज्ञान को भूलकर बाहरी रूप से जनेऊ धारण करते हैं वे वे इस संसार चक्र में ही घूमते रहते हैं।

।।यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।

अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।

कंधे पर धारण करने का अर्थ:-

यज्ञोपवीत को बाएं बाहिने से लेकर दाहिने भाग की कमर तक धारण किया जाता है। कंधे पर जनेऊ धारण करने का अर्थ है कि हमारे कंधे पर यानी हमारे ऊपर तीन ऋण है- मातृ-पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण है जिससे हमें मुक्त होना है। जनेऊ या यज्ञोपवित हमे यही याद दिलाती है कि इन ऋणों को हम न भूलें।

  1. मातृ-पितृ ऋण- यह ऋण इसलिए है क्योंकि माता-पिता ने हमें जन्म दिया है, संस्कार दिए हैं। उनके दिए जीवन को अच्छे कार्यो में लगाने से, अपने भी बच्चों को अच्छे संस्कार देने से इस ऋण से मुक्ति मिलती है।
  2. ऋषि ऋण- हमारे गुरुओं ने जो हमें ज्ञान दिया है उसी के अनुसार आचरण करना, ज्ञान को बांटना और जगत की उन्नति में सहायक होने से ऋषि ऋण से मुक्ति मिलती है।
  3. देव ऋण- अर्थात जीवन जीने के लिए प्रकृति या देवताओं ने हमें जो दिया है। जैसे अन्न, जल, वायु आदि। इसके लिए वायु देवता, जल देवता, अग्नि देवता और प्रकृति के अन्य घटक जिनसे हमारा पोषण हुआ है उस प्रकृति की रक्षा करके, धर्म की रक्षा करके और देव आराधना करके हम देव ऋण से मुक्त हो सकते हैं।

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।

आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

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