भारत हजारों सालों से धन की निंदा कर रहा है और जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन के मामले में जरूर बेईमान हो जाएगा। धन की निंदा करना खतरनाक है क्योंकि धन की निंदा करने से धनोपार्जन बंद हो जाता है। आज भी भारत का बड़ा व्यवसायी समाज उत्पादक और ग्राहक के बीच में कड़ियों का काम कर रहा है।
बंबई में पैदा होने वाली चीज को बक्सर के गांव तक पहुंचने के लिए पच्चीस दलालों की लंबी श्रृंखला से गुजरना पड़ता है। बीच के ये पच्चीस दलाल भारत के बड़े व्यवसायी समाज का हिस्सा हैं। और ध्यान रहे, धन का उत्पादन करने के बजाए सिर्फ दलाली करने पर हजार तरह की बेईमानियां शुरू हो जाती है। जिस देश में व्यवसायी वर्ग मूलतः दलाल हो तो व्यवसायी वर्ग कभी भी सही अर्थों में ईमानदार नहीं हो सकता। इससे बेईमानी बढ़ती जाती है और उपभोक्ता के ऊपर बोझ लगातार बढ़ता जाता है।
भारत के व्यवसायी उत्पादक क्यों नहीं है? यह सोचना जरूरी है। भारत तीन-चार हजार वर्षों से धन की निंदा कर रहा है। धन को फिजूल बता रहा है। जो समाज धन की निंदा करता हो उसकी धन की आकांक्षा समाप्त नहीं होती। धन की आकांक्षा के कुछ स्वाभाविक कारण हैं। धन न तो व्यर्थ है, न असार है। धन की बड़ी सार्थकता है, बड़ी उपयोगिता है। धन जीवन के बीच बदलाव और विनिमय का अत्यंत उपयोगी माध्यम है। इसके बिना सभ्यता विकसित नहीं हो सकती। जिन समाजों ने धन का विकास नहीं किया, वे समाज जंगलों में रह रहे हैं, वे विकसित नहीं हो सकते। धन अत्यंत जरूरी है, वह सभ्यता का प्राण है। और मजे की बात है कि धन के विरोध करने वाले साधु-संतों को हिंदुस्तान का व्यापारी वर्ग ही पालता-पोसता है।
भारत के व्यापारी धन का विरोध करने वाले साधुओं को ही आदर देता है क्योंकि व्यापारी के मन में धन का लोभ है। वह धन का लोभी है, धन का आकांक्षी है। इससे धन की आकांक्षा नहीं मिटती लेकिन धन के उत्पादन का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। फिर दूध में पानी मिलाने, शक्कर में रेत मिलाने और नकली दवाएं बनाने जैसे अनैतिक कार्यों से धन इकट्ठा करने की कोशिश की जाती है। सृजनात्मक होना श्रम मांगता है, लंबा चिंतन और प्रतिभा मांगता है, जीवन भर की साधना मांगता है। तब अंत में धन पैदा होगा। धन के विरोधी सरल तरकीब निकालते हैं। जुआ खेल, सट्टा खेल, लाटरी निकाल कर ज्यादा पाने की कोशिश करते हैं।
जो कौम बिना कुछ किए, रुपये पाना चाहती हो, वह कौम खतरनाक है। एक रुपया लगा कर कोई आदमी एक लाख रुपया पाना चाहता हो, यह आदमी अपराधी है। वह आदमी खतरनाक है, और उसको समाज में पालना सब तरह की बीमारियों को पैदा करना है। धन चाहा जाए, जरूर चाहा जाए, लेकिन धन चाहने का अर्थ है, सृजनात्मक होना। कैसे हम पैदा करें धन? हम इस मुल्क में पूछते हैं, कैसे हम धन इकट्ठा करें? पैदा करने की बात कोई भी नहीं करता। क्योंकि पैदा करने के लंबे श्रम में कौन लगे?
समाज ऐसा होना चाहिए जहां ईमानदार होना अत्यंत सरल हो और ईमानदार होना सरल तभी होगा जब धन ज्यादा हो। अभी हम हवा को तिजोरियों में बंद करके नहीं रखते। अगर हवा कम पड़ जाए तब हम तिजोरियों में बंद करने लगेंगे। इससे दुनिया अपरिग्रही हो जाएगी। जिस दिन धन हवा की तरह मिलने लगेगा, उसी दिन दुनिया धन से मुक्त हो जाएगी। जिस दिन लोगों का मन धन से मुक्त हो जाएगा, उसी दिन अध्यात्म का एक बड़ा तूफान पैदा होगा और आदमी का मन धर्म की तरफ दौड़ने लगेगा।