जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 33(7) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने इस विचार पर अपना व्यक्त किया कि वोट देने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है। कोर्ट ने एक साथ दो लोकसभा सीट या विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने से रोकने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया। इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने प्रस्तुत किया था कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 33 (7) प्रकृति में प्रतिबंधात्मक है और संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रतिबंधों को प्रकृति में उचित होना चाहिए।
इस पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “यह एक प्रतिबंध नहीं है, यह एक सुविधाजनक उपाय है। बेशक, कुछ निर्णय हैं जो कहते हैं कि वोट का अधिकार केवल एक वैधानिक अधिकार है और संवैधानिक अधिकार नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है। वोट देने का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है क्योंकि यह एक अनुच्छेद 19(1)(ए) का हिस्सा है। इसमें अभिव्यक्ति का अधिकार, लोगों को चुनने का अधिकार और लोगों को वोट देने का अधिकार शामिल है।” हालांकि, सीजेआई ने इस पर विस्तार से कुछ नहीं कहा क्योंकि इस मामले में यह मुद्दा नहीं था।
इससे पहले संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस केएम जोसेफ चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए स्वतंत्र तंत्र की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे, उन्होंने भी भारत के चुनाव आयोग के इस रुख से असहमति व्यक्त की थी कि वोट देने का अधिकार केवल एक वैधानिक अधिकार है, न कि एक संवैधानिक अधिकार। ईसीआई के वकील ने कहा था कि ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें कहा गया था कि वोट देने का अधिकार केवल एक वैधानिक अधिकार है।
जस्टिस जोसेफ ने इस पर कहा था, “ये कहना सही नहीं होगा कि वोट देने का अधिकार केवल एक वैधानिक अधिकार है।“ जस्टिस जोसेफ ने संविधान के अनुच्छेद 326 का उल्लेख किया। इसके मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति जिनकी उम्र 18 साल पूरी हो चुकी है वे ऐसे किसी भी चुनाव में मतदाता के रूप में पंजीकृत होने के हकदार हैं। जस्टिस जोसेफ ने आगे कहा कि वोट देने का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है।