नई दिल्ली: ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा कि अदालत को तीन बिंदुओं पर निर्णय करना है। आर्थिक आरक्षण के हक में दिए निर्णय में उन्होंने इनका विस्तृत विश्लेषण किया।
केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है?
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग हमारे समाज की सच्चाई है, केवल आर्थिक शब्दावली नहीं। गरीबी केवल एक अवस्था नहीं, पतन का बिंदु भी है। जब एक वर्ग के लिए असमानता को मिटाने में आरक्षण सृजनात्मक काम कर रहा है, तो दूसरा वर्ग जो गरीबी के रूप में असमानता से गुजर रहा है, क्या उसे आरक्षण इसलिए नहीं मिल सकता, क्योंकि वह दूसरे प्रकार की असमानता से पीड़ित है? मेरा मानना है सभी तरह से प्रयास हों, ताकि सभी को सामाजिक व आर्थिक न्याय मिले।
आरक्षण के दावे में प्रतियोगिता नहीं होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेशों में आर्थिक आधार पर आरक्षण से रोक केवल उन्हीं वर्गों के लिए हैं, जिन्हें अनुच्छेद 15(4), 15(5) और 16(4) के तहत शामिल किया गया है। बाकी वर्गों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसलिए इसे संविधान के ढांचे के खिलाफ नहीं देखा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण व्यवस्था एससी-एसटी, ओबीसी और एसईबीसी वर्गों में शामिल नहीं हो रहे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए है। इसे पिछड़े वर्ग बनाम अगड़े वर्ग के रूप में नहीं देखना चाहिए।
ईडब्ल्यूएस से कुछ वर्गों को बाहर करना समानता व संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है?
बेशक एससी, एसटी, ओबीसी वर्गों के भीतर भी गरीब वर्ग हैं। लेकिन संसद की यह सोच रही है कि इन वर्गों को चूंकि आरक्षण मिल रहा है, इसलिए उन्हें ईडब्ल्यूएस व्यवस्था में अलग से और आरक्षण देने की जरूरत नहीं होगी। पूर्व में जारी कोटा पर भी कोई असर नहीं हो रहा है। इस वजह से संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन के तर्क को नकारा जाना चाहिए।
कुल आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा टूटती है… यह संविधान के खिलाफ नहीं है?
आरक्षण पर 50% सीमा पर आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश अनुच्छेद 15(4), 15(5) और 16(4) के तहत आने वाले वर्गों के लिए हैं। अदालत के किसी आदेश को इस प्रकार नहीं देखना चाहिए कि भले ही संसद को ऐसा लगे कि एक और वर्ग को आरक्षण की जरूरत है, तो उसे वह आरक्षण नहीं दिया जा सकता।
जस्टिस बेला त्रिवेदी : आजादी के 75 साल बाद भी हासिल नहीं हुए लक्ष्य
जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा, आरक्षण की समय सीमा होनी चाहिए। संविधान निर्माताओं ने जैसा सोचा, 1985 में सांविधानिक पीठ में जैसा प्रस्ताव दिया गया और संविधान के 50 साल पूरे होने पर जो लक्ष्य हासिल करने की बात कही गई, आजादी के 75 साल बाद भी वे हासिल नहीं हुए हैं। दूसरी ओर, अनुच्छेद 334 में संसद और राज्य विधानसभाओं में एससी-एसटी आरक्षण के लिए समय सीमा दी गई है। यह संविधान बनने के 80 साल बाद खत्म हो सकता था। एंग्लो-इंडियन प्रतिनिधित्व को 2020 में खत्म किया गया है। अगर ऐसी ही समय सीमा अनुच्छेद 15 व 16 में में आरक्षण और प्रतिनिधित्व के लिए दी जाए तो हम एक जातिविहीन और वर्गविहीन आदर्श समाज की ओर बढ़ सकते हैं।
तार्किक वर्गीकरण समानता का उल्लंघन
समानता का सिद्धांत भेदभावपूर्ण व्यवहार की भी अनुमति देता है, लेकिन अतार्किक वर्गीकरण समानता का उल्लंघन है। समाज के कमजोर वर्गों का आर्थिक सशक्तीकरण समानता के लिए जरूरी है। आरक्षण की व्यवस्था आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए नहीं रही है, इसी वह से सरकार ने इन वर्गों को शिक्षा व रोजगार में भागीदारी के लिए संविधान संशोधन किया।