वास्तु शास्त्र के जनक हैं विश्वकर्मा -17 सितम्बर विश्वकर्मा जयंती पर विशेष

विश्व के प्राचीनतम तकनीकी ग्रंथों का रचयिता भी विश्वकर्मा को ही माना गया है। इन ग्रंथों में न केवल भवन वास्तु विद्या, रथादि वाहनों के निर्माण, बल्कि विभिन्न रत्नों के प्रभाव व उपयोग आदि का भी विवरण है। देव शिल्पी के विश्वकर्मा प्रकाश को वास्तु तंत्र का अपूर्व ग्रंथ माना जाता है। इसमें अनुपम वास्तु विद्या को गणितीय सूत्रों के आधार पर प्रमाणित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि सभी पौराणिक संरचनाए, भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित हैं। भगवान विश्वाकर्मा के जन्म को देवताओं और राक्षसों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है। पौराणिक युग के अस्त्र और शस्त्र भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित हैं। वज्र का निर्माण भी उन्होने ही किया था।
भगवान विश्वकर्मा को वास्तु शास्त्र और तकनीकी ज्ञान का जनक माना जाता है। पौराणिक साक्ष्यों के मुताबिक, स्वर्गलोक की इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, असुरराज रावण की स्वर्ण नगरी लंका, भगवान श्रीकृष्ण की समुद्र नगरी द्वारिका और पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर के निर्माण का श्रेय भी विश्वकर्मा को ही जाता है। पौराणिक कथाओं में इन उत्कृष्ट नगरियों के निर्माण के रोचक विवरण मिलते हैं। उड़ीसा का विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर तो विश्वकर्मा के शिल्प कौशल का अप्रतिम उदाहरण माना जाता है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि जगन्नाथ मंदिर की अनुपम शिल्प रचना से खुश होकर भगवान विष्णु ने उन्हे शिल्पावतार के रूप में सम्मानित किया।
माना जाता है कि विश्विकर्मा ने ही लंका का निर्माण किया था। इसके पीछे कहानी है कि शिव ने माता पार्वती के लिए एक महल का निर्माण करने के लिए भगवान विश्वकर्मा को कहा, तो विश्वकर्मा ने सोने का महल  बना दिया। इस महल के पूजन के दौरान, भगवान शिव ने राजा रावण को आंमत्रित किया। रावध, महल को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया और जब भगवान शिव ने उससे दक्षिणा में कुछ देने को कहा तथा उसने महल ही मांग लिया। भगवान शिव ने उसे महल दे दिया और वापस पर्वतों पर चले गए। इसी प्रकार विश्व कर्मा की एक कहानी और है कि महाभारत में पांडव जहां रहते थे, उस स्थान को इंद्रप्रस्थ के नाम से जाना जाता था। इसका निर्माण भी विश्ववकर्मा ने किया था। कौरव वंश के हस्तिनापुर और भगवान कृष्ण के द्वारका का निर्माण भी विश्वणकर्मा ने ही किया था।
इस तरह स्कंद पुराण में उन्हें देवयानों का सृष्टा कहा गया है। स्कंद पुराण में ही एक अन्य स्थल पर उल्लेख है कि वे शिल्प शास्त्र के इतने बड़े मर्मज्ञ थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ बनाने की सामथ्र्य रखते थे। माना जाता है कि प्राचीन काल में जितने भी सुप्रसिद्ध नगर और राजधानिया थीं, उनके वास्तु शिल्प का सृजन भी विश्वकर्मा ने ही किया था।
सतयुग का स्वर्ग लोक, त्रेता युग की लंका, द्वापर की द्वारिका और कलयुग के हस्तिनापुर आदि के रचयिता विश्वकर्मा जी की पूजा अत्यन्त शुभकारी है। सृष्टि के प्रथम सूत्रधार, शिल्पकार और विश्व के पहले तकनीकी ग्रन्थ के रचयिता भगवान विश्वकर्मा ने देवताओं की रक्षा के लिये अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया था। विष्णु को चक्र, शिव को त्रिशूल, इंद्र को वज्र, हनुमान को गदा और कुबेर को पुष्पक विमान विश्वकर्मा ने ही प्रदान किये थे। सीता स्वयंवर में जिस धनुष को श्रीराम ने तोड़ा था, वह भी विश्वकर्मा के हाथों बना था। जिस रथ पर निर्भर रह कर श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन संसार को भस्म करने की शक्ति रखते थे उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे। पार्वती के विवाह के लिए जो मण्डप और वेदी बनाई गई थी,वह भी विश्वकर्मा ने ही तैयार की थी। विश्वकर्मा शिल्पशास्त्र के आविष्कारक और सर्वश्रेठ ज्ञाता माने जाते हैं। जिन्होनें देवताओं के सम्पूर्ण विमानों की रचना की और जिनके द्वारा आविष्कार कर शिल्पविद्याओं के आश्रय से सहस्रों शिल्पी मनुष्य अपने जीवन निर्वाह करता है।
धर्मग्रंथों में विश्वकर्मा को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वंशज माना गया है। ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव थे, जिन्हें शिल्प शास्त्र का आदि पुरुष माना जाता है। इन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए विश्वकर्मा भी वास्तुकला के महान आचार्य बने। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ इनके पुत्र हैं। इन पांचों पुत्रों को वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में विशेषज्ञ माना जाता है।
विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में सर्वमान्य हैं। इनको गृहस्थ आश्रम के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक भी कहा गया है। अपने विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान के कारण देव शिल्पी विश्वकर्मा मानव समुदाय ही नहीं, वरन देवगणों द्वारा भी पूजित हैं। देवता, नर, असुर, यक्ष और गंधर्व सभी में उनके प्रति सम्मान का भाव है। इनकी गणना सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवों में होती है। मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा के पूजन- अर्चन किये बिना कोई भी तकनीकी कार्य शुभ नहीं माना जाता। इसी कारण विभिन्न कार्यो में प्रयुक्त होने वाले औजारों, कल-कारखानों और विभिन्न उद्योगों में लगी मशीनों का पूजन विश्वकर्मा जयंती पर किया जाता है।
विश्वकर्मा के यथाविधि पूजन और उनके बताये वास्तुशास्त्र के नियमों का अनुपालन कर बनवाये गये मकान और दुकान शुभ फल देने वाले माने जाते हैं। इनमें कोई वास्तु दोष नहीं माना जाता। मान्यता है कि ऐसे भवनों में रहने वाला सुखी और सम्पन्न रहता है और ऐसी दुकानों में कारोबार फलता-फूलता है। इसी कारण बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और दिल्ली आदि क्षेत्रों में प्रतिवर्ष भगवान विश्वकर्मा की जयन्ती पर धूमधाम से इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस मौके पर विश्वकर्मा समाज के लोग इनकी शोभायात्रा भी निकालते हैं।
अत: विश्वभकर्मा पूजन भगवान विश्वकर्मा को समर्पित एक दिन है। हर वर्ष 17 सितम्बर को विश्वकर्मा जयंती मनायी जाती है। इस दिन का औद्योगिक जगत और भारतीय कलाकारों, मजदूरो, इंजीनियर्स आदि के लिए खास महत्व है। भारत के कई हिस्सों में इस दिन काम बंद रखा जाता है और खूब पंतगबाजी की जाती है। विभिन्न प्रदेशों की सरकार विश्वकर्मा जयन्ती पर अपने कर्मचारियों को सावेतनिक अवकाश प्रदान करती है।

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