होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है. यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है.
पहले दिन को होलिका जलायी जाती है जिसे होलिका दहन भी कहते है. दूसरे दिन को धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है. इस दिन एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल फेंकते हैं. वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव काम-महोत्सव भी कहा गया है. होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है. इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं.
होली पर भांग पीने की परंपरा है. हालांकि, ये शास्त्रीय परंपरा नहीं है. होली के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. होली में ऐसे तो कई पेय पदार्थों का इस्तेमाल होता है. लेकिन भांग या भांग वाली ठंडाई का प्रचलन सबसे अधिक है. अक्सर लोग भांग को नशे के तौर पर लेते हैं पर असल में इसके पीछे न सिर्फ धार्मिक बल्कि सेहत से जुड़े कई दिलचस्प तथ्य हैं.
भांग का होली से क्यों क्या है असली नाता?
दरअसल, ऐसा माना जाता है कि होली के मौके पर हर्ष उल्लास के चलते शरीर का तापमान बढ़ जाता है. होली आती भी गर्मी के मौके पर ही है. शरीर का तापमान बढ़ने से चक्कर आने या असहजता महसूस होने लगती है. इसके अलावा, रंगों में गर्मी होती है. केमिकल वाले रंग होने के कारण इनमें गर्मी का स्तर भी ज्यादा होता है. रंगों की गर्मी से त्वचा खराब हो सकती है. यही नहीं, रंगों या गुलाल की गर्मी से सिर दर्द होना, सिर में भारीपन होना जैसी कंडीशन महसूस हो सकती है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, होली के वक्त रंगों गुलालों का गुबार उड़ने से कपोल गर्म हो जाता है. जो आपके दिमाग को नुक्सान पहुंचा सकता है. ऐसे में भांग या भांग वाली ठंडाई इस गर्माहट हो ठंडा करने में मदद करती है. इसके अलावा, मस्ती मजाक में अगर ठंडाई या भांग शरीर पर गिर जाए तो गुलाल या रंग से होने वाले नुक्सान से भी स्किन को बचाती है. इसलिए भांग को होली में पीना अच्छा माना जाता है. लेकिन आजकल इसे सिर्फ नशे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है होली जैसा भव्य रंगों का त्यौहार सिर्फ भांग पीने का जरिया मान लिया गया है.
आर्यों की होली
प्राचीन काल में होली को विवाहित महिलाएं परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाती थीं. होली के दिन पूर्ण चंद्रमा की पूजा करने की परंपरा थी. वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था. प्राचीन समय में खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान था. अधपके अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा. आर्यों में भी होली पर्व का प्रचलन था. होली अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था. होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है. जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र कथा गार्ह्य-सूत्र, नारद पुराण भविष्य पुराण जैसे ग्रंथों में भी होली का उल्लेख मिलता है. प्राचीन समय में होली को रंगोत्सव कहा जाता था. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ में स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख है. संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु वसन्तोत्सव कवियों के प्रिय विषय रहे हैं.