सनातन धर्म में होने वाली तमाम तरह की पूजा आदि में कलश का खासतौर पर इस्तेमाल किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं की मानें तो कलश को समुद्र मंथन का प्रतीक माना जाता है। तो वहीं इसे सुख-समृद्धि का भी प्रतीक कहा जाता है, जिसे आम भाषा में घड़ा भी कहते हैं। हिंदू धर्म में गंगाजल को पावन कहा गया है, जिस कारण इसका पूजा घर में होना अनिवार्य होता है। अतः घर के पूजा स्थल में इसे घड़े में शुद्ध जल भर कर रखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि बिना इसके पूजा सफल नहीं मानी जाती। लोक मत है कि यह कलश ठीक उसी तरह निर्मित है जिस तरह अमृत मंथन के दौरान मंदराचल को मथकर अमृत निकाला गया था।
देवी पुराण की मानें तो स्वयं मां भगवती की पूजा-अर्चना करते समय सर्वप्रथम कलश की स्थापना की जाती है। इसके अलावा विशेष तौर पर नवरात्रि के दिनों में मंदिरों तथा घरों में कलश स्थापित किए जाते हैं तथा मां दुर्गा की विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है।
यही कारण है कि इसे इतनी महत्वता प्राप्त है। परंतु आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो न तो इस कलश को पूजा घर में सही जगह रखना जानते हैं न ही इसकी अहमियत को। तो चलिए आपको बताते हैं कि वास्तु शास्त्र के अनुसार इसे घर की किस दिशा में रखना शुभ होता है साथ ही साथ कलश प्रार्थना का मंत्र-
ईशान कोण में जल की स्थापना: वास्तु विशेषज्ञ बताते हैं कि घर के ईशान कोण में जल की स्थापना करने से वहां हमेशा सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है। अत: मंगल कलश के रूप में जल की स्थापना करनी चाहिए। ध्यान रहें घर का ईशान कोण हमेशा खाली होना चाहिए और यहीं पर मंगल कलश की स्थापना होनी चाहिए।
होता है शुद्ध और सकारात्मक वातावरण का आगमन: वास्तु के अनुसार मंगल कलश में तांबे के पात्र में जल भरा रहता है जिससे विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। नारियल में भी जल भरा रहा है। दोनों के सम्मिलन से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के जैसा वातावरण निर्मित होता है जो वातावरण को दिव्य बनाती है। इसमें जो कच्चा सूत बांधा जाता है वह ऊर्जा को बांधे रखकर वर्तुलाकर वलय बनाता है। इस तरह यह एक प्रकार से सकारात्मक और शांतिदायक ऊर्जा का निर्माण करता है।
ऐसे रखें मंगल कलश: ईशान भूमि पर रोली, कुंकुम से अष्टदल कमल की आकृति बनाकर उस पर मंगल कलश को रखा जाता है। एक कांस्य या ताम्र कलश में जल भरकल उसमें कुछ आम के पत्ते डालकर उसके मुख पर नारियल रखा होता है। कलश पर रोली, स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर, उसके गले पर मौली (नाड़ा) बांधी जाती है। जिसके बाद ही किसी शुभ कार्य का प्रारंभ किया जाता है।
कलश प्रार्थना मंत्र-
कलशस्य मुखे विष्णु: कंठे रुद्र: समाश्रित:।
मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुंधरा।
ऋग्वेदोअथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण:।।
अंगैच्श सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता:।
अत्र गायत्री सावित्री शांतिपृष्टिकरी तथा।
आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुरितक्षयकारका:।।
सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि जलदा नदा:।
आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुरितक्षयकारका:।।
माना जाता है कलश पूजन की प्रार्थना के श्लोक भी भावपूर्ण हैं। उसकी प्रार्थना के बाद वह कलश केवल कलश नहीं रहता, किंतु उसमें पिंड ब्रह्मांड की व्यापकता समाहित हो जाती है।इसलिए कलश की स्थापना के दौरान व बाग में उपरोक्त बताए मंत्रों का जप अवश्य करें।