बीते एक दशक तक यूपी की जनता के दिलों पर राज करने वाली भाजपा को इस बार की हार लंबे समय तक सालती रहेगी। वैसे तो यूपी में भाजपा के हारने के तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं, लेकिन सबसे अधिक नुकसान 2014 के चुनाव में आजमाए गए सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले की अनदेखी ने पहुंचाया है। वहीं, सपा ने इस बार भाजपा के उसी पुराने फॉर्मूले को नए तरीके से आजमाया और उससे आगे निकल गई।
चुनाव नतीजों को लेकर पार्टी में इस बात पर खूब चर्चा हो रही है कि आखिर भाजपा हारी क्यों? प्रदर्शन इतना खराब क्यों रहा? इस सबको समझने के लिए हमें 2014 में आजमाई गई रणनीतियों को भी देखना होगा। ज तब प्रदेश प्रभारी रहे अमित शाह ने लोकसभा चुनाव में जातीय समीकरणों को साधने के लिए सोशल इंजीनियरिंग का नया फॉर्मूला तैयार किया था। इसके तहत छोटी- छोटी जातियों और समूहों को जोड़कर उन्होंने एक मजबूत जातीय समीकरण बनाया। इसी फॉर्मूले के आधार पर उम्मीदवारों का चयन भी किया गया।
जातीय समीकरण के प्रभाव और संभावित परिणाम का पूरा अध्ययन करने के बाद उम्मीदवार तय करने का पूरा फायदा भाजपा को मिला। लगातार 10 साल तक केंद्र की – सत्ता पर काबिज रही यूपीए सरकार को – उखाड़ फेंकने में वह सफल रही। यही नहीं, यूपी की 80 में से 73 सीटों पर एनडीए ने जीत दर्ज की।
2017 के विधानसभा चुनाव में उसी फॉर्मूले से 403 सीटों में से अपने दम पर 312 और सहयोगियों को मिलाकर कुल 325 सीटें जीतने में भाजपा कामयाब हुई थी। वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में 78 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा ने विपक्ष को चारों खाने चित करते हुए 62 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी। वह भी तब जब उसके खिलाफ सपा-रालोद- – बसपा का एक मजबूत गठबंधन था। 2014 के चुनाव में तो सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही प्रमुख चेहरे थे, जबकि 2017 और उसके बाद के चुनाव में मुख्यमंत्री बनाए गए योगी आदित्यनाथ का नाम भी शामिल हो गया।
2019 के चुनाव में ही मिल गए थे संकेत
समय से साथ रणनीति नहीं बदलना भी भाजपा को भारी पड़ा। लगातार चार चुनाव जीतने के बाद भाजपा शायद इस बात को भूल गई कि 2014 में तैयार किया गया सामाजिक समीकरणों का ताना-बाना पिछले दस सालों में काफी बदल चुका है। उसे नए सिरे से मजबूत करने की जरूरत है। हर बार मिली जीत से शायद भाजपा यह मान बैठी कि अब तो मोदी-योगी के चेहरे पर ही चुनाव जीत जाएंगे। इसलिए टिकट वितरण में उसने अपने फॉर्मूले को ताक पर रख दिया।
■ 2014 के बाद के सभी चुनावों में भाजपा के वोट प्रतिशत में गिरावट आने लगी थी। यानी जनता ने संकेत दे दिया था। फिर भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इससे सबक नहीं लिया। जबकि विपक्ष में बैठे अखिलेश लगातार भाजपा के परिणामों पर न केवल पैनी नजर रखे हुए थे, बल्कि उसके वोट प्रतिशत गिरने के कारणों का भी अध्ययन करते रहे। अध्ययन के निष्कर्ष से सबक लेते हुए उन्होंने 2024 के चुनाव के लिए अपनी रणनीति तैयार की और उसी के आधार पर पीडीए का नया फॉर्मूला गढ़ा। इसी फॉर्मूले पर अमल करते हुए भाजपा को शिकस्त देने में वह सफल भी हुए।
एंटी इन्कंबेंसी ने भाजपा को हराया
टिकट वितरण में मौजूदा सांसदों को लेकर जनता के मिजाज को नहीं समझ पाना भी भाजपा को भारी पड़ा। तमाम सांसदों के खिलाफ लोगों में आक्रोश था, फिर भी उनको मैदान में उतार दिया गया। यूपी में एंटी इन्कंबेंसी का असर ऐसा रहा कि चुनाव लड़ रहे 12 केंद्रीय मंत्रियों में से 7 को हार का सामना करना पड़ा। आठ बार सांसद रहीं मेनका गांधी, स्मृति जूबिन इरानी, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह, डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय जैसे दिग्गज नेताओं को सीट गंवानी पड़ी।
स्थानीय कार्यकर्ताओं से फीडबैक नहीं लेना पड़ा महंगा… भाजपा नेतृत्व जमीनी वास्तविकता से आंख मूंद कर स्थानीय कार्यकर्ताओं से फीडबैक लिए बिना ही मनमाने तरीके से टिकट बांटता रहा। नेतृत्व इस भ्रम में था कि जातीय समीकरण का जो फॉर्मूला उसने 2014 में तैयार किया है, उसका प्रभाव आज भी कायम है। बाकी रही- सही कसर तो मोदी-योगी के नाम से ही पूरी हो जाएगी। पर, मतदाताओं ने इस बार मोदी- योगी के बजाय कैंडिडेट को देखा।