धर्म डेस्क –परमात्मा प्राप्ति के तीन सोपान हैं : निष्काम कर्म, उपसना और तत्व चिंतन। इनमें सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान है निष्काम कर्म। निष्काम कर्म के द्वारा ही अंत:करण शुद्ध होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के बंधन से मुक्त होकर उपासना तथा तत्व चिंतन करने का अधिकारी बनता है। निष्काम कर्म का अर्थ है अहं और स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर तत्व वेत्ता गुरु की आज्ञा का पालन करना।
जिस प्रकार पानी नीचे की ओर तो अपने भार और द्रव्यता के कारण ही बढ़ जाता है किन्तु ऊपर उठने के लिए यंत्र शक्ति का उपयोग करना पड़ता है, इसी प्रकार सकाम कर्मों को करने से तो वातावरण और स्वार्थ के कारण प्राणी अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है किन्तु निष्काम कर्मों के लिए गुरु आज्ञा पालन रूपी यंत्र शक्ति का उपयोग करना पड़ता है। अपना दुख दूर करने की इच्छा से बढ़कर, यदि दूसरे का दुख दूर करने की आप में तड़प है तो आप निष्काम कर्मी हैं। निष्काम कर्मों के प्रेरक, संचालक तथा निर्देशक लोभ, वासना, मान तथा भय नहीं होते। जिस लगन से परिचित स्नेही और आदरणीय व्यक्ति की सेवा करते हैं, उसी लगन से अपरिचित और मौका पड़े तो निङ्क्षदत से व्यक्ति की भी सेवा करने की योग्यता क्या आप में हैं?
पुराणों का यह श्लोक एक निष्काम कर्म का आदर्श बन जाता है :
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्।
कामये दुख तत्तानाम, प्राणि नामाति नशनम।
अर्थात न तो मुझे राज्य की इच्छा है, न स्वर्ग की ओर न ही मोक्ष की। दुख ताप से तो तपे हुए प्राणियों के दुख नाश की ही मैं इच्छा करता हूं।