लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश के बाद सबसे बड़ा झटका महाराष्ट्र में मिला है। इसकी समीक्षा में कई खामियां सामने आई हैं। इसमें एक यह है कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना के सात उम्मीदवारों की जीत में भाजपा का हाथ रहा लेकिन भाजपा के उम्मीदवारों को गठबंधन का साथ नहीं मिल सका। यही स्थिति अक्तूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी बन सकती है। इससे यह चर्चा आम है कि भाजपा ने शिवसेना और एनसीपी के दो फाड़ कर जो जाल बिछाया था उसमें खुद ही उलझ गई है, जिससे विधानसभा चुनाव की डगर कठिन हो गई है।
लोकसभा चुनाव में मराठा आरक्षण, जातीय ध्रुवीकरण, संविधान बदलने का प्रचार और स्थानीय समीकरण भाजपा के खिलाफ रहे। तर्क दिया जा रहा है कि एकनाथ शिंदे के साथ आने से सत्ता का सुख तो मिला लेकिन इससे भाजपा को दोहरा झटका भी लगा है। एक तो बड़ी पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा और इसका सीधा असर लोकसभा चुनाव में भाजपा की छवि पर भी पड़ा और बड़ी हार भी मिली। राज्य की 48 में से सिर्फ 17 सीटों पर महायुति की विजय हुई है जिसमें भाजपा को 9, शिंदे की शिवसेना को 7 और अजित पवार की एनसीपी को एक सीट मिली। वहीं, महा विकास अघाड़ी ने 30 सीटों पर जीत का परचम लहरा दिया। चुनाव में कांग्रेस 13, एनसीपी (एसपी) 8 और शिवसेना (यूबीटी) ने 9 सीटें जीती हैं। पिछले चुनाव में भाजपा 23 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। पार्टी नेताओं का कहना है कि भरपूर मत शिवसेना व अजित पवार को मिले लेकिन भाजपा को उतना फायदा नहीं मिला।
मतों के स्थानांतरण व बेहतर समन्वय का मिला महा विकास अघाड़ी को फायदा
ठाणे, कल्याण और उत्तर-पश्चिम मुंबई से लेकर इचलकरंजी, बुलढाणा, मावल, संभाजीनगर (औरंगाबाद) में जहां भाजपा के विधायक थे वहां से अधिक लीड मिलने से शिवसेना की जीत आसान हो गई, लेकिन भाजपा के उम्मीदवारों के लिए ऐसा नहीं हो सका। वहीं, विपक्षी दल महा विकास अघाड़ी में न केवल एक दूसरे को मतों का स्थानांतरण हुआ बल्कि शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (एसपी) के बीच गजब का समन्वय भी रहा। इसका सबसे अधिक लाभ उद्धव ठाकरे की शिवसेना को हुआ। जो मुस्लिम वर्ग कभी शिवसेना से दूरी बनाकर रखता था उसने भी उद्धव के उम्मीदवार को थोक में मत दिए। इससे शिवसेना (यूबीटी) भाजपा के बराबर सीटें जीतने में कामयाब हो गई। वहीं, भाजपा को अपने दम पर जूझना पड़ा।
परंपरागत मतों में हुई सेंधमारी
लोकसभा चुनाव में भाजपा के कोर वोटर कहे जाने वाले माली, धनगर (गड़रिया) और वंजारी (माधव) का समीकरण भी ढंग से नहीं बन पाया। धनगर समाज की नाराजगी से भाजपा को पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा की 12 सीटों पर झटका लगा। हालांकि अंतिम समय में धनगर समाज के नेता महादेव जानकर को परभणी से टिकट देकर महायुति ने समाज के मतों का इंतजाम सुनिश्चित किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और जानकर भी चुनाव हार गए।