शरीर और मन दोनों को स्वस्थ बनाता है पंचकर्म

हमारी पुरातन चिकित्सा पद्दती आयुर्वेद, सिर्फ एक चिकित्सा पद्धति नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का एक ढंग है. जिसमें आहार, रहन-सहन और दिनचर्या सहित बहुत से नियम बताये गए हैं, जो स्वस्थ रहने के लिए जरूरी माने जाते हैं. आयुर्वेद में सिर्फ रोगों का उपचार ही नहीं किया जाता है, बल्कि शरीर की विभिन्न प्रकार से देखभाल करने तथा बीमारियों से दूर रखने में भी आयुर्वेद में कई प्रकार की उपचार पद्धतियां मौजूद है. आयुर्वेद में पंचकर्म एक ऐसी ही पद्धति है, जिसमें विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं की मदद से शरीर के विषैले पदार्थों को बाहर निकाला जाता है. इससे शरीर और मन दोनों स्वस्थ बने रहते हैं.

दिल्ली के आयुर्वेदाचार्य तथा पंचकर्म केंद्र के प्रमुख डॉ प्रेम विश्वास बताते हैं कि पंचकर्म आयुर्वेद की वह शाखा है जिसमें शरीर के शुद्धिकरण यानी शरीर के विषैले पदार्थों ‘अम’ को बाहर निकालने का कार्य किया जाता है. वह बताते हैं कि पंचकर्म आयुर्वेद की शोधन चिकित्सा पद्धतियों का एक हिस्सा है, जिसमें पांच चिकित्सा पद्धतियों वमन, विरेचन, नास्य, बस्ती और रक्त मोषण के माध्यम से शरीर को स्वस्थ बनाए रखने का प्रयास किया जाता है.

डॉ विश्वास बताते हैं कि आयुर्वेद में माना जाता है कि शरीर में किसी भी प्रकार की शारीरिक व्याधियों या अन्य कारणों से बनने वाले विषैले पदार्थों और दोषों से यदि शरीर मुक्त हो जाए तो ज्यादातर समस्याएं अपने आप ठीक हो जाती हैं. पंचकर्म यही काम करता है. इसके साथ ही किसी प्रकार के जटिल रोग होने की अवस्था में पंचकर्म हमारे शरीर को इस लायक बना सकता है कि वह रोग के उपचार को बेहतर तरीके से ग्रहण कर पाए.

पंचकर्म के प्रकार : वह बताते हैं कि पंचकर्म को दो भागों में बांटा जाता है. वे हैं- पूर्व कर्म तथा प्रधान कर्म. जिनके तहत कई विधियों से शोधन प्रक्रिया की जाती है. जो शरीर को अलग-अलग माध्यम से और अलग-अलग तरह से दोष मुक्त करती हैं. ये विधियां इस प्रकार हैं :-

⦁ स्नेहन : इस प्रक्रिया में सबसे पहले तेलपान, अभ्यंग तथा अन्य माध्यम से शरीर के दोषों को बाहर निकालने का प्रयास किया जाता है. स्नेहन में बाह्य तथा अभ्यंतर दो प्रकार होते हैं. बाह्य स्नेहन में अभ्यंग, शिरोधारा, नेत्र तर्पण, कटिबस्ति, उरोवस्ति, जानुवस्ति आदि क्रियाएं आती हैं, जो भिन्न-भिन्न रोगों में लाभकारी होती हैं. वहीं, आभ्यंतर स्नेहन में औषधि युक्त घी या तेल रोगी को पिलाया जाता है.

⦁ स्वेदन : इस प्रक्रिया में शरीर से विभिन्न तरीकों से स्वेद यानी पसीना निकालने का प्रयास किया जाता है, जिससे त्वचा मार्ग से दोषों का निष्कासन किया जा सके. इस प्रक्रिया में औषधि युक्त काढ़े से भाप देकर या कपड़े, पत्थर या रेत से गर्मी देकर स्वेदन कर्म कराया जाता है.

⦁ वमन : वमन अर्थात उल्टी, इस प्रक्रिया में औषधियां या क्वाथ पिलाकर उल्टी कराई जाती है, जिससे शरीर से कफ और पित्त बाहर आ जाता है. दरअसल, शरीर के दूषित पदार्थ स्नेहन और स्वेदन विधि के बाद अमाशय में इकट्ठा हो जाते हैं, तो उन्हें बाहर निकालने के लिए वमन काफी लाभकारी होता है.

⦁ विरेचन : इस प्रक्रिया में गुदामार्ग से दोषों को निकाला जाता है. विरेचन से शरीर से दूषित पदार्थ बाहर निकल जाते है और शरीर में रक्त का संचार बेहतर तरह से होने लगता है.

⦁ वस्ति : इस प्रक्रिया में गुदामार्ग या मूत्रमार्ग से औषधि शरीर में प्रवेश कराया जाता है. वस्ति को वात रोगों की प्रधान चिकित्सा कहा गया है. चरक संहिता के अनुसार यह दो प्रकार का होता है आस्थापन और अनुवासन. हालांकि, ये दोनों ही एनिमा के ही प्रकार हैं लेकिन इन दोनों प्रक्रियाओं में इस्तेमाल में होने वाली औषधि तथा औषधीय द्रव्य या उनका मिश्रण अलग-अलग होता है.

⦁ शि‍रोविरेचन/नस्य : इस विधि में नाक से औषधि को शरीर में प्रवेश करवाया जाता है. नस्य प्रक्रिया में औषधी युक्त तेलों का इस्तेमाल किया जाता है. यह प्रक्रिया शि‍रोरोगों एवं नेत्र रोगो के लिए काफी लाभदायक मानी जाती है.

⦁ रक्त मोक्षण : रक्त मोक्षण का अर्थ है शरीर से दूषित रक्त को बाहर निकालना. इस प्रक्रिया में जलौकावचरण या लीच के माध्यम से शोधन प्रक्रिया की जाती हैं.

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