जातीय जनगणना हुई तो आरक्षण को लेकर भी बढ़ेगा दबाव, नहीं दिया जा सकता 50 फीसद से ज्यादा रिजर्वेशन

नई दिल्ली।

जातीय जनगणना की मांग वैसे तो कोई नई नहीं है। राजनीतिक फायदे के लिए इसे समय-समय पर तूल दिया जाता रहता है। हालांकि सरकारों और नीति निर्माताओं ने इस मांग को कभी तवज्जो नहीं दिया। इसकी बड़ी वजह इससे देश के सामाजिक ताने-बाने के बिगड़ने का डर है। वैसे भी जाति-पंथ में बंटे समाज को पिछले कुछ वर्षो में जिस तरह से सरकार ने अपने प्रयासों से करीब लाने की कोशिश की है, वह जातीय जनगणना के बाद फिर से बिखर जाएगा। इसके साथ ही मौजूदा आरक्षण को भी नए सिरे से तय करने की नई मांग जोर पकड़ेगी। इसे लागू करने का दबाव भी बढ़ेगा।

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित 50 फीसद की सीमा में है जातिगत आरक्षण

शायद यही वजहें हैं कि अब तक की सरकारों ने जातीय जनगणना की मुहिम को कभी आगे नहीं बढ़ाया। वर्ष 2011 में कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार ने आर्थिक और सामाजिक जनगणना कराई थी। इसमें उसने जाति को भी शामिल किया था। हालांकि इसकी मंशा विकास की दौड़ में पिछड़ी रह गई जातियों की पहचान करना व उनके उत्थान के लिए नई योजना बनाना था। यही वजह थी कि सरकार ने इसका कोई आंकड़ा जारी नहीं किया। वैसे भी देश में मौजूदा समय में सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक संस्थानों के दाखिले में आरक्षण की जो व्यवस्था है, उसमें जातीय आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसद की सीमा निर्धारित कर रखी है। यानी 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।

पहले जनसंख्या के आधार पर ही एससी-एसटी को मिला था आरक्षण

खास बात यह है कि यह आरक्षण शुरू में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) को ही दिया गया था। इसका निर्धारण उनकी जनसंख्या के आधार पर किया गया था। इसके तहत एससी को 15 फीसद और एसटी को 7.5 फीसद आरक्षण दिया गया था। बाद में बाकी 27 फीसद आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को दिया गया। हालांकि ओबीसी आरक्षण में इससे ज्यादा की मांग करता आ रहा है। उसका कहना है कि उसकी भागीदारी ज्यादा है। लेकिन अब तक कोई भी तथ्यात्मक आंकड़ा न होने से सरकार चुप्पी ओढ़े हुए है।

पिछड़ी जातियों में से ज्यादा आबादी वाली जातियां भी मांग सकती है अलग से हिस्सेदारी

वहीं सुप्रीम कोर्ट की आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा है। ऐसे में यदि इस दायरे को बढ़ाया गया तो समाज के दूसरे वर्गों में वैमनस्यता बढ़ेगी। वहीं मौजूदा आरक्षण हासिल करने वाले वर्गों की बड़ी जातियां भी इस दायरे में अपने लिए अलग से आरक्षण की मांग कर सकती हैं। वहीं इनमें जिन जातियों की संख्या बहुत कम है, वह दौड़ से बिल्कुल बाहर हो जाएगी।

केंद्र सरकार फिलहाल कुछ भी बोलने से बच रही

जातीय जनगणना की मांगों के बीच केंद्र सरकार फिलहाल कुछ भी बोलने से बच रही है। लेकिन देश के सामाजिक बदलावों पर पैनी नजर रखने वाले जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्री नारायण का मानना है कि जातीय जनगणना होने में कोई बुराई नहीं है। हालांकि, इसका इस्तेमाल जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए नहीं होना चाहिए। इसकी मदद से पिछड़ी जातियों की पहचान कर उन्हें आगे बढ़ाया जा सकता है। उनका कहना है कि इतिहास के जो अनुभव है, उसके तहत जातिगत जनगणना से देश में फिर से जातीय व्यवस्था मजबूत होगी। जो लोकतंत्र को कमजोर करेगी।

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