वरुथिनी एकादशी के दिन हुआ था संत वल्लभाचार्य का जन्म

वैशाख कृष्ण की एकादशी को वरुथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी को विधिपूर्वक व्रत करने से जीवन में मृत्यु समान दुखों से मुक्ति मिलती है। सन् 1479 में इसी एकादशी के दिन भक्ति परम्परा के महान संत वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। इन्हें ‘वैश्वानरावतार’ यानी अग्नि का अवतार माना जाता है।

वल्लभाचार्य कृष्णभक्ति की सगुण धारा के आधार स्तंभ और पुष्टिमार्ग के संस्थापक हैं। ये शुद्धाद्वैत दर्शन के भी प्रणेता हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने 11 वर्ष की आयु में ही सभी वेद-वेदांगों का अध्ययन पूरा कर लिया था। इसके बाद इन्होंने विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार के सभी विद्वानों को अपने तर्कों से परास्त किया और विजयनगर के प्रमुख आचार्य बने। इनके द्वारा लिखी गई श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका वैष्णव संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र का अणु भाष्य और वृहद् भाष्य के साथ-साथ कई और ग्रंथों की भी रचना की।

श्री वल्लभाचार्यकृष्णभक्ति काव्य के प्रेरणास्रोत माने जाते हैं। महाकवि सूरदास इनके शिष्य हुए। आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों की स्थापना हुई। रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य ने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को अधिक महत्व देते हुए वेदान्त को जनसामान्य की समझ के लायक बनाने के प्रयास किए। उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र का विश्लेषण ही शंकराचार्य के अद्वैतवाद का आधार था। इसीलिए बाद के अन्य आचार्यों ने भी प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र) के साथ-साथ भागवत को भी अपने मत का आधार बनाया। वल्लभाचार्य ने भी वेद, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भागवत की व्याख्याओं के माध्यम से अपने मत को सामने रखा, लेकिन उन्होंने इनमें श्रीमद्भागवत को ही सबसे अधिक महत्व दिया। कहते हैं कि श्री वल्लभाचार्य ने भारत का भ्रमण तीन बार किया।

अपनी यात्राओं में उन्होंने 84 जगहों पर श्रीमद्भागवत का प्रवचन किया था। इन स्थानों को 84 बैठक या ‘आचार्य महाप्रभु जी की बैठकें’ के नाम से जाना जाता है। वल्लभ संप्रदाय में ये बैठकें मंदिरों और देव स्थानों की तरह ही पवित्र मानी जाती हैं। इन 84 बैठकों में से 24 बैठकें ब्रजमंडल (मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदगांव) में हैं, जो ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के विविध स्थानों पर हैं। श्री वल्लभाचार्य ने इस संसार का त्याग सन् 1531 में किया। ये जिस समय में पैदा हुए थे, वह समय हिन्दू धर्म के लिए बहुत कठिन था। वल्लभाचार्य ने वैसे समय में अपनी सगुण भक्ति धारा से हिन्दू धर्मावलंबियों में आशा का संचार किया और हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान में बहुत बड़ा योगदान दिया

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