क्या अयोध्या में भूमि पूजन के बाद भी जारी रहेगी बीजेपी की ‘मंदिर’ पॉलिटिक्स?

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बीजेपी नेतृत्व यह चाहेगा कि उसके उठाए धर्म के मुद्दों पर ही राजनीति केंद्रित रहे

नई दिल्ली. राम मंदिर का मुद्दा लंबे समय से भारतीय राजनीति (Indian Politics) को प्रभावित करता रहा है. आरएसएस (RSS), विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी इसे लगातार धार देते रहे हैं. अब इनका मिशन पूरा हो गया है. मंदिर निर्माण की विधिवत शुरुआत हो चुकी है. ऐसे में अब सवाल ये उठता है कि क्या मंदिर मुद्दे का चैप्टर अब राजनीति की किताब से हट जाएगा. या फिर इसका रंग और गाढ़ा हो जाएगा. मंदिर बनने के बाद की राजनीति कैसी होगी. राम जन्मभूमि के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गौतम बुद्ध, महावीर और गुरु नानक का नाम लेने के क्या कोई सियासी मायने हैं?

राजनीतिक विश्लेषक आलोक भदौरिया कहते हैं, “किसी भी मुद्दे के दोहन में बीजेपी (BJP) का कोई मुकाबला नहीं है. अर्थव्यवस्था पर छाए संकट को अब बीजेपी भगवा परदे से ढंकने की कोशिश करेगी. बीजेपी नेतृत्व यह चाहेगा कि उसके उठाए मुद्दों पर ही राजनीति केंद्रित रहे. इस तरह वो अर्थव्यवस्था (Economy) और बेरोजगारी जैसे बुनियादी सवालों पर किसी पार्टी को फोकस नहीं करने देगी.”

भदौरिया के मुताबिक “बीजेपी जिस तरह की मार्केटिंग शैली में काम करती है उसे देखते हुए मैं कह सकता हूं कि राम मंदिर (Ram Mandir) निर्माण की गूंज अगले कुछ साल तक सुनाई देती रहेगी. यह मुद्दा अगले चुनाव में भी छाया रहेगा. क्योंकि यह परफार्मेंस का सवाल है. बीजेपी के लिए मंदिर का सबसे बड़ा महत्व है इसलिए वो इसे भुनाएगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. कम से कम उसकी कोशिश यही होगी कि 2024 का आम चुनाव और उससे पहले 2022 का यूपी चुनाव इसी मसले पर लड़ा जाए.”

भदौरिया का मानना है कि “हाल के दिनों में जातीय और धार्मिक भेदभाव को लेकर बीजेपी की छवि पर जो ग्रहण लगता नजर आ रहा था, राम जन्मभूमि के मंच से उसे बैलेंस करने की आज कोशिश की गई है. भगवान बुद्ध, महावीर और गुरु नानक का नाम लेकर यह दिखाने की कोशिश की गई कि बीजेपी सामाजिक समरसता वाली पार्टी है. दरअसल, बीजेपी शतरंज के सारे मोहरों पर निगाह रखती है और मौका पाते ही उसे चल देती है.”

हालांकि, दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर सुबोध कुमार, भदौरिया की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. इसके पीछे उनके तर्क हैं. वो कहते हैं, “बीजेपी को मंदिर की सियासत से कोई खास लाभ नहीं मिला. आडवाणी की रथयात्रा के बाद हुए 1991 के चुनाव में मंडल और मंदिर का माहौल गर्म था. लेकिन सरकार कांग्रेस की बनी.”

बीजेपी ने कब किस मुद्दे पर लड़ा चुनाव

वो बताते हैं, “वाजपेयी जी ने 2004 में इंडिया शायनिंग को मुख्य मुद्दा बनाया. जबकि 2014 में कांग्रेस के भ्रष्टाचार और परिवार के मसले पर बीजेपी ने चुनाव लड़ा और जीता. जबकि 2019 में पाकिस्तान, राष्ट्रवाद के नाम पर विजय हासिल हुई. इसलिए अभी यह कहना जल्दीबाजी होगी कि बीजेपी की राजनीति में मंदिर बनने के अचीवमेंट से कोई बदलाव आएगा. वैसे भी आम चुनाव अभी चार साल बाद होना है.”

कोरोना ने राजनीति और धर्म को लेकर बदली धारणा!

कुमार कहते हैं, “अब रथयात्रा के दौर का 1990 वाला भारत नहीं है. अब जनता की रीच ग्लोबल है. जब तक चुनाव आएगा दूसरे बड़े मु्द्दे सामने आ जाएंगे. कोराना काल में जिस तरीके से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धर्म को लेकर लोगों सोच बदली है, उसमें मुझे नहीं लगता कि अगले चुनावों में जनता के लिए मंदिर-मस्जिद कोई बड़ा मुद्दा रह जाएगा. सब जानते हैं कि मंदिर बन रहा है.”

क्या खत्म हो गई अयोध्या पॉलिटिक्स? 

दूसरी ओर वरिष्ठ पत्रकार अंबिका नंद सहाय कहते हैं, “अब अयोध्या पर पॉलिटिक्स खत्म हो गई है. हां, अगर कोई काशी और मथुरा छेड़ दे तो मैं कह नहीं सकता. श्रीराम मंदिर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज से पहले का समय संघर्ष का युग था. जब भी अयोध्या जाईए एक अजीब सा डर और तनाव रहता था. लेकिन आज से समय परिवर्तित हो गया है. अब शांति है. अब संघर्ष नहीं है.”

सहाय कहते हैं, “अब सब खुश हैं. मुस्लिम भी. क्योंकि यह सब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुआ है. अब उनके लिए भी तनाव का कोई कारण नहीं बचा है. प्रधानमंत्री मोदी ने जो ‘भय बिन न होई न प्रीति’ की बात की है उसका आशय यह है कि हमें देश के लिए शक्ति साधना करनी होगी. क्योंकि कमजोर से कोई प्रेम नहीं करता.”

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